कबूतर संदेशवाहक हुआ करते थे राजाओं और शासकों के, और साथ ही कबूतरबाज़ी भारतीय संस्कृति का हिस्सा बन गया। कबूतरों को प्रशिक्षित किया जाने लगा।
अपने दिल्ली आवास में पिछले हफ़्ते जब बीमार पड़ी तो एक तो इस बात से चिढ़ हो रही थी की मेरी छुट्टियाँ ज़ाया हो रही थीं , और दूसरे की बालकनी में कबूतरों ने काफ़ी आना-जाना, गंदा करना, फड़फड़ाना, गुटरगूँ मचा रखा था। इन कबूतरों को कोसते हुए भी ये ख़याल आता रहा कि कैसी बुरी हूँ मैं जो इन भोले – भाले पक्षियों से चिढ़ रही हूँ ।
ख़ुशफ़हमी थी मुझे कि रंग – बिरंगे पक्षियों के चित्र – वीडियो देख प्रसन्न होता मेरा मन वाक़ई सब जीवों से प्रेम करने वाला है, पर इन विचारों पर ग़ौर करने पर पता लगा की सब दिखावे की बातें हैं ! फिर भी आग में घी का काम किया काम में हाथ बटाने वाली लड़की विमला की बात ने, जब उसने कहा:- “ दीदी , आपके यहाँ नहीं होने पर हर हफ़्ते आपका घर साफ़ करती हूँ ..कोई परेशानी नहीं है मुझे क्योंकि भाई (मेरा बेटा) तो बड़ा सहेज के रखते हैं सब , पर इन कबूतरों ने जान ले रखी है .. इतने बड़े घर को साफ़ करने में जितना समय नहीं जाता, इनकी गंदगी साफ़ करने में उसका दुगुना समय लगता है !” ये सुन कर मिज़ाज और तल्ख़ हो उठा था।
मन करे की ऐसा क्या कर दिया जाये की इन कबूतरों की ज़ात इधर ना आये। फिर अपने इस विचार पर बड़ा क्रोध आया। लगा की ये पक्षी तो बस गंदा कर देते हैं जगहों को पर हम इंसान की औलादें, जो नकारात्मक नज़रिए ऐसे फैलाते हैं की लोगों के मन – मस्तिष्क की सफ़ाई ही नहीं हो सकती! तो हम जैसों का क्या हो? कबूतर कम से कम विश्व भर में शांति के प्रतीक तो हैं और हम इंसान प्रतीकों का निर्धारण करते रह जाते हैं, पर ख़ुद करते क्या हैं ?
कबूतर संदेशवाहक हुआ करते थे राजाओं और शासकों के , और साथ ही कबूतरबाज़ी भारतीय संस्कृति का हिस्सा बन गया। कबूतरों को प्रशिक्षित किया जाने लगा। मुग़ल काल में हुए शासक बाबर ने अपने संस्मरण में कबूतरों के खेल का खूब ज़िक्र किया है।संदेशवाहक ही नहीं, मालिक के वफ़ादार भी होते थे – कबूतर (अब भी होंगे)। ये दूर की यात्रायें बड़ी क़ाबिलियत से कर लेते थे क्योंकि रास्तों की समझ इन्हें खूब होती थी । महाभारत और रामायण जैसे ग्रंथों में इनकी चर्चा है । वेदों में भी कई श्लोक हैं जो कपोत यानी कबूतरों पर लिखे गये हैं। इन्हें समानुभूति का पात्र तो माना ही गया है, इनकी रक्षा भी की जानी चाहिए ऐसा भी माना गया है ।
ऋग्वेद में कपोत यानी कबूतर को दूत माना गया है जो निम्नलिखित श्लोकों में इस प्रकार वर्णित है –
देवा॑: क॒पोत॑ इषि॒तो यदि॒च्छन्दू॒तो निॠ॑त्या इ॒दमा॑ज॒गाम॑ । तस्मा॑ अर्चाम कृ॒णवा॑म॒ निष्कृ॑तिं॒ शं नो॑ अस्तु द्वि॒पदे॒ शं चतु॑ष्पदे ॥
ऋ॒चा क॒पोतं॑ नुदत प्र॒णोद॒मिषं॒ मद॑न्त॒: परि॒ गां न॑यध्वम् । सं॒यो॒पय॑न्तो दुरि॒तानि॒ विश्वा॑ हि॒त्वा न॒ ऊर्जं॒ प्र प॑ता॒त्पति॑ष्ठः।।
कहीं तो इन कबूतरों को शुभ माना गया है, तो कहीं अत्यंत अशुभ ।
राल्फ टी. एच. ग्रिफ़िथ , पहले यूरोपियन हैं जिन्होंने वेदों का अंग्रेज़ी रूपांतरण किया है और उन्होंने कहा है-
A dove, is regarded as an ill-omened bird and the messenger of death, once flown into the house.
दूसरी तरफ़ ब्रिटेन दूसरे विश्व युद्ध की समाप्ति के ५० साल पूरे होने के उपलक्ष्य में एक सिक्का जारी किया जिसपर कबूतर ज़ैतून के पत्ते लिए हुए है।
ख़ैर, जब ज़िक्र हो रहा है कबूतरों से होने वाली परेशानियों का तो मैं उस के ज़िक्र से भटकना नहीं चाहती।
पर्यावरण के दृष्टिकोण से शहरों में कबूतरों की बढ़ती आबादी स्थानीय पारिस्थितिकी तंत्र पर प्रतिकूल असर डाल सकता है, जिससे उस इलाक़े में पलने बढ़ने वाले पक्षियों की प्रजातिओं पर असर पड़ सकता है ।
कहते हैं कि कबूतर बहुत सी बीमारियों जैसे अवियन इनफ़्लुएंज़ा या साल्मोनेला के वाहक भी होते हैं । ये अलग तरह के माइट्स, परजीवी आदि फैला सकते हैं । इनकी बीट मानव तथा दूसरे जीवों के लिए घातक हो सकती है। अम्लीय प्रकृति की इनकी बीट भवन, मूर्तियों और तमाम आधारभूत संरचनाओं के लिए भी समस्या है। इनका कहीं भी घरौंदे बना देने की आदत रोज़मर्रा की ज़िंदगी में परेशानी खड़ी करती है। कई शहरों में कबूतरों से बचने के उपक्रम के तहत कई चीज़ें की जा रही हैं – जैसे ताक पर जालियाँ लगाना, स्पाइक्स लगाना आदि।
आज की दुनिया दूध का दूध और पानी का पानी करने, यूँ कहिए कि हर कुछ के परखच्चे उड़ा डालने वाली हो गई है । मसलन, अगर दूध के १०० फ़ायदे हों तो भी उसके नुक़सान भी आज हज़ार गिना दिये जा सकते हैं । अजब बात ये है की हम निष्कर्ष पर कहीं पहुँचें ना पहुँचें, द्वंद्व की मनःस्थिति में भरपूर रहते हैं ।अब मेरा प्रश्न ये है कि मैं कैसे सोचूँ इन कबूतरों को? जालियों से बालकनी बंद कर के इस परेशानी भरी सोच से आज़ाद हो जाऊँ, या कबूतरों से होने वाले तमाम नुक़सान की ही बातें करती रहूँ, कबूतरों को दाने-पानी डालने वालों को अपना दुश्मन समझूँ?