..उन बंगाली मित्र के प्रति मेरे मन में प्रेम और श्रद्धा ऐसा नहीं है कि अब आई हो। देव दीपावली की शाम से पूर्व ही उन्होंने हमसे कहा कि उनकी सखी और उसकी कुछ सहेलियां भी देव दीपावली देखने की आकांक्षी हैं और भीड़ के भय से वे हमारे साथ आना चाहती हैं।बस वो दिन है और आज का दिन है, उसके प्रति मेरे मन में प्रेम बना हुआ है।
जब कभी भी मैं गुलाम अली साहब का गाना “चुपके-चुपके रात दिन… ” सुनता हूँ तो मुझे अपने स्नातक के दिन याद आ जाते हैं, जबकि उन दिनों मुझे न किसी से इश्क था, न कोई आशिकी थी। सुबहें थीं, शामें थीं, बेफिक्री थी, एक अकारण मस्ती थी, उधार कीचाय की चुस्कियाँ थीं, हाँ एक बात और, तब चाय मीठी हुआ करती थी। उन्हीं दिनों की बात है देव दीपावली आने को थी और हमारा दशश्वमेध घाट घूमने का कार्यक्रम था। भीड़ होनी ही थी पर बनारस के खुले सांड भला भीड़ से कब विचलित होने वाले थे, सोकार्यक्रम यही तय रहा कि हम घाट घूमने जाएंगे। हमारे एक बंगाली मित्र थे जिन्हें रमणियों के साथ का सुखद संयोग प्राप्त था और इसी कारण उन्होंने अपने को इस कार्यक्रम से अलग कर लिया। उस समय मुझे क्रोध आया था पर अब सोचता हूँ तो लगता है किउन्होंने जो किया वही स्वाभाविक था। उन बंगाली मित्र के प्रति मेरे मन में प्रेम और श्रद्धा ऐसा नहीं है कि अब आई हो। देव दीपावली की शाम से पूर्व ही उन्होंने हमसे कहा कि उनकी सखी और उसकी कुछ सहेलियां भी देव दीपावली देखने की आकांक्षी हैं और भीड़ केभय से वे हमारे साथ आना चाहती हैं। बस वो दिन है और आज का दिन है, उसके प्रति मेरे मन में प्रेम बना हुआ है।
ज़िन्दगी में कई बार हम अमृत के भ्रम में विष पी लेते हैं, लेकिन जीवन में रस विष से भी आता है। कल देव दीपावली अकेले बीती, बस इन्हीं यादों के साथ…
उस वर्ष से पूर्व भी हमने देव दीपावली देखी थी पर “रोज घटा छाती थी, मगर ऐसी तो न थी… ” गाने ने पहली बार अपने अर्थ को हम सबों पर स्पष्टता से प्रकट किया था। हम अति उत्साह और उतने ही सीमित संसाधनों से सज-धज कर महिला छात्रावास होते हुएदशश्वमेध घाट पहुँचे। वैसे बिरला छात्रालय से विश्वविद्यालय के बाहर का रास्ता महिला छात्रावासों और महिला महाविद्यालय होता हुआ ही जाता है लेकिन हम इस तथ्य से प्रायः उदासीन ही रहा करते थे, अधिक विकल्प भी नहीं थे। तो उस दिन हम चार लड़के, चाररमणियों के सान्निध्य में गंगा की और चले। पुरानी कहावत है कि प्रीत न माने छोटी जात, प्यास न माने धोबी घाट और अब जो हो रहा था वह बस इसी कहावत के भाव की जीवित व्याख्या थी, मेरी समझ में दोनों ही ओर से। लड़कियां अति साधारण थीं, हालाँकिउनमें बंगाली बालाओं वाले सम्मोहन का कुछ अंश तो था ही। हम सब औपचारिक परिचय के बाद घाट की ओर चल पड़े थे। चूँकि हमारा छात्रालय बड़ा था और कला संकाय में सह-शिक्षा नहीं थी सो हम अपने भाग्य पर प्रसन्न थे। अपने मित्रों की जलन भरी निगाहेंहमें विशिष्ट होने का भान करवा रहीं थीं। आज हम रंगशाला के अर्जुन थे और बाकी सब हय की पूँछ झाड़ने वाले। हम सूर्यास्त से पूर्व ही दशाश्वमेध घाट पहुँच चुके थे। समान संख्या में होने के कारण हम जोड़ों में बैठ गए और सूर्यास्त के साथ ही मैंने एक सांवली सीकन्या की उपमा कार्तिक पूर्णिमा के चाँद से दे डाली। मैं विश्व साहित्य के सारे प्रेम-काव्य उन दस मिनटों में उसे सुना देना चाहता था और भी मित्र अपनी विविध प्रतिभाएं दिखाकर सम्मोहिनियों को सम्मोहित करने में लगे हुए थे। उधर से भी कुछ रुचि दिखाई गई। मेरीसंध्या-संगिनी सुमधुर गाती थी और मैं वाह- वाह तो आज भी बेहतरीन कर लेता हूँ। कुछ देर उनका गीत चला और तभी मेरे एक मित्र की संध्या-संगिनी ने मेरे ओर इशारा करके मेरी चाँद वाली बात का जवाब दिया कि वो तो चाँद जैसी है और आप तो साक्षात् चाँद हैं।मुझे उसके शब्दों का उतना ही बुरा तब लगा था जितना कि यह लिखते हुए आज लग रहा है लेकिन मैंने चाँद की उबड़-खाबड़ सतह जैसे उसके गालों पर कोई टिप्पणी नहीं की। कंसीलर लगाकर सुन्दर बनी उस महिला का रूप गर्विता होना वास्तव में उच्च शिक्षा मेंस्त्रियों की कम भागीदारी का ही दुष्परिणाम है और इसीलिए भी मैं स्त्री शिक्षा पर बल देता हूँ। फिर हम नावों पर घूमे और भी प्रकार से उस उत्सव का आनंद लिया और देर रात छात्रालय लौट आये। फिर कई हफ़्तों तक उन रमणियों की ओर से न कोई सन्देश आया नकोई बात हुई। हम अपने पैसे पर बाउंसर की एक दिन की नौकरी पर रखे गए थे।
ज़िन्दगी में कई बार हम अमृत के भ्रम में विष पी लेते हैं, लेकिन जीवन में रस विष से भी आता है। कल देव दीपावली अकेले बीती, बस इन्हीं यादों के साथ…
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