हिंदी कविता के एंग्री यंग मैन सुदामा पांडेय ‘धूमिल’ की 47वीं पुण्यतिथि (10 फरवरी) पर मेरी विनम्र श्रद्धांजलि।
गुस्सा धूमिल की कविताओं का स्थायी भाव है। उन्हें व्यवस्था का छद्म बहुत साफ दिखता था, उन्हें कायरता चुभती थी। उन्हें शोषक पर क्षोभ तो था, पर शोषितों द्वारा शोषकों का ही पक्ष लेना भी पीड़ित करता था। ये पंक्तियां आज भी कितनी प्रासंगिक और समसामयिक लगती हैं।
मैंने जब भी उनसे कहा है देश, शासन और राशन…
उन्होंने मुझे टोक दिया है।
अक्सर, वे मुझे अपराध के असली मुकाम पर
अँगुली रखने से मना करते हैं।
जिनका आधे से ज्यादा शरीर
भेड़ियों ने खा लिया है
वे इस जंगल की सराहना करते हैं –
‘भारतवर्ष नदियों का देश है।’
अंग्रेजी कवि थॉमस ग्रे ने अपनी कविता “ओड ऑन ए डिस्टेंट प्रॉस्पेक्ट ऑफ एटन कॉलेज” में लिखा है
“Where ignorance is bliss, ’tis folly to be wise”
(जहाँ मूर्खता में आनंद हो, वहाँ बुद्धिमान होना मूर्खता है)
धूमिल मूर्ख नहीं रह पाए और न ही गलत को सही कहने के लिए अपने तर्क गढ़ पाए। तर्क गढ़ लेने पर रामनामी बेचने का और रंडी की दलाली करने का फर्क ख़त्म हो जाता है। सच को देखने की दृष्टि और इसको स्वीकार करने के साहस ने उन्हें आजीवन बेचैन रखा। श्रीमती इंदिरा गांधी के आगमन पर जुटने वाली लाखों की भीड़ पर वे विस्मित थे और इसकी खुद अपने लिए व्याख्या करते हुए धूमिल ने 13 फरवरी 1971 को अपनी डायरी में लिखा है:
” आततायी को देखने के लिए भीड़ उमड़ पड़ती है। सामान्य व्यवस्थित जीवन में साहसिकता की कमी से वीर पूजा की भावना पैदा होती है। कायरता से पूर्ण उत्साह अक्सर आदमी को उस जमीन पर ले जाता है जहाँ आदमी की कमजोरियाँ क्रूरता की उपासना करने लगती हैं।”
मानव की विभिन्न प्रतिक्रियाओं का, विविध भावों की धूमिल मनोवैज्ञानिक विवेचना इतनी गहराई से करते हैं कि कई बार उसको स्वीकारना भी कठिन होता है। अपनी कविता “अकाल दर्शन” में उन्होंने लिखा है:
वे इस कदर पस्त हैं
कि तटस्थ हैं।
इस कविता को पढ़ने से पूर्व मैं तटस्थ को एक सकारात्मक शब्द मानता था, लेकिन अब लगता है कि वास्तव में पस्त होने की परिसीमा है तटस्थ होना। धूमिल ने अपने 39 वर्ष के छोटे से जीवन मे हिंदी कविता को और हिंदी साहित्य को जो मनोवैज्ञानिक दृष्टि और विरोध का स्वर दिया है, उसके लिए हिन्दी साहित्य में उनका नाम सदैव ही सम्मान से लिया जाएगा। धूमिल आलोचकों और साहित्यिक माफियाओं द्वारा बनाए गए कवि नहीं थे, बल्कि उनकी प्रसिद्धि सामान्य जन से आती थी, लोक से आती थी। इसलिए ही अपनी मृत्यु के पश्चात वे और भी अधिक प्रसिद्ध होते जा रहे हैं, उन्हें और भी अधिक पढ़ा जा रहा है।
कुछ दिनों पूर्व ही राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित धूमिल समग्र प्राप्त हुई है। अब धूमिल को थोड़ा और समझ पाऊँगा। तब तक उन्हीं की इन पंक्तियों से उन्हीं को तर्पण:
कल सुनना मुझे,
आज मैं लड़ रहा हूँ।