मेरे कैमरा लेंस की ज़िद होती है …रेत पर लिखी , छोटी से छोटी रेखाओं को क़ैद करने की ! हवा की उँगलियाँ रेत के बदन पर जाने कितनी नज़्में लिखती और मिटाती हैं …
अब प्रकृति में हो रही गुफ़्तगू को रेकोर्ड करना कभी तो लगता है की उचित नहीं , उनकी अंतरंगता में हम इंसान हस्तक्षेप ही तो करते हैं ..
कभी आँखें बंद कर के बैठ जाती हूँ , महसूस करती हूँ उनकी बातों को और कभी क़ैद करती हूँ चुपके चुपके उनकी गुफ़्तगू .. कभी शरीक हो जाती हूँ उनके गीत में , गुनगुना लेती हूँ , कभी अधखुली आँखों से देखने की कोशिश करती हूँ उन लरज़िशों को … जब रेत सिहर जाती जाती है , हवा के एक झोंके की आमद से !
फिर सोचती हूँ की प्रकृति की भाषा को समझने के लिए रेत ही हो जाना चाहिए … तब हवा की रचनाओं का मर्म समझ आएगा ..
रेगिस्तान में कुछ होने और ना होने का फ़र्क़ मिट जाता है .. जहां से उभरना , उसी में मिल जाने की सीख पल पल .. क्षण क्षण ..
एक जीवन दर्शन … एक जीवन संगीत … जीवन की गति और उसके क्षणभंगुर होने के अद्भुत duet को प्रस्तुत करती हैं रेत और हवाएँ !
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