तोषी ज्योत्स्ना
विकासशील देश होने के बावजूद भारत की अपनी एक अलग छवि रही है क्योंकि देश का रुख हमेशा से ही उदारवादी और सहिष्णु रहा है।निष्पक्ष न्याय व्यवस्था और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता भारतीय जनतंत्र की विशेषता है लेकिन तीन महीने से चल रहे किसान आंदोलन और उस आंदोलन पर सरकारी रवैये ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रश्न खड़े कर दिए हैं।
आज जब विश्व स्तर पर निवेश और अंतरराष्ट्रीय उत्पादन के लिए भारत को चीन के विकल्प के रूप में देखा जा रहा है ऐसे में किसान आंदोलन के प्रति सरकार की प्रतिक्रिया और प्रबंधन के प्रति सरकार को सावधानी बरतने की जरूरत है।
पहली बात तो यह है कि ग्लोबल विलेज और सोशल मीडिया के ज़माने में, जब पूरा विश्व एक हो गया है, “देश का आंतरिक मामला” कह कर किसी मुद्दे को दबाया नहीं जा सकता। दूसरी बात यह है कि सरकार के खिलाफ़ उठने वाली हर आवाज़ देशद्रोही नहीं होती।जनता जिस सरकार को चुनती है उससे प्रश्न पूछने का हक़ भी रखती है और जनता के इस हक़ को बरकरार रखने का काम भी सरकार का ही होता है।
इन दिनों किसान आंदोलन और उससे जुड़े घटनाक्रमों पर नज़र डालने पर लगता है कि लोकतंत्र में अपनी बात कहने सुनने की आज़ादी पर एक विमर्श बहुत ज़रूरी है।लोकतांत्रिक व्यवस्था में जहाँ जनता को ही जनार्दन कहा जाता है वहाँ जनार्दन की इतनी भी उपेक्षा अच्छी नही है।आंदोलन करने का मतलब अपनी आवाज़ उठाना होता है, सरकार के समक्ष अपना पक्ष रखना होता है, ऐसे में अगर सरकार उनको ही नज़रअंदाज़ करे जिनके लिए कानून बना रही हो बात समझ नहीं आती। इस मुद्दे पर सरकार का रवैया शुरू से ही ऐसा रहा है जैसे विरोध किसानों ने नही तथाकथित गैरजिम्मेदार विपक्ष ने कर दिया हो।पिछले तीन महीनों से चल रहे इस अराजनैतिक मुद्दे को राजनैतिक रंग देने की भरसक कोशिश हुई है।किसान आंदोलन में इतने उतार चढ़ाव देखने को मिले, आंदोलन को इतने आयाम दिए गए लेकिन आंदोलन आज भी चल ही रहा है और दिनों दिन मजबूत होता जा रहा है। लोकतांत्रिक व्यवस्था में ऐसा अपेक्षित है कि एक भी आवाज़ दबनी नहीं चाहिए फिर किसान आंदोलन को महज एक दो राज्य में सिमटा हुआ घोषित करने भर से क्या सरकार की ज़िम्मेदारी खत्म हो जाती है? सरकार लगातार यह कह रही है कि कृषि कानून किसानों के हितों को ध्यान में रख कर बनाये गए हैं लेकिन क्या नए कानून से किसानों को अवगत कराना, उसके फायदे बताना, ग़लतफ़हमी मिटाना सरकार की ज़िम्मेदारी नहीं है?
देखा जाए तो ताली कभी एक हाथ से नहीं बजती जब तक किसानों का आंदोलन शांतिपूर्ण तरीके से चला तब तक सरकार भी वार्ताओं के दौर चलाती रही भले ही नतीजे कुछ भी नहीं निकले हों प्रक्रिया तो चल ही रही थी। गणतंत्र दिवस पर होने वाली दुर्भाग्यपूर्ण घटना के बाद सरकार का रुख और कड़ा हो गया।शांतिपूर्ण आंदोलन में अगर अराजक तत्व घुस आए तो इसकी रोकथाम की ज़िम्मेदारी भी तो सरकारी तंत्रों की है लेकिन ख़ामियाज़ा किसानों ने भी कड़कड़ाती ठंड में बिजली, पानी, इंटरनेट आदि मूलभूत सुविधाओं से हाथ धोकर दिया लेकिन अभी भी डटे हुए हैं। यहाँ यह दलील दी जा सकती है कि देश की अर्थव्यवस्था और विदेशी निवेश पर पर इन सबका कोई सीधा असर नही पड़ने वाला है। लेकिन सत्तारुढ़ सरकार को आगामी चुनावों के मद्देनज़र भी दिनानुदिन ज्वलंत होती जा रही समस्या का समाधान जल्द ही कर लेना चाहिए क्योंकि किसान इस जनतंत्र के खेल में उस थर्ड अंपायर की तरह है जो परिदृश्य में कभी नहीं होता मगर खेल को नियन्त्रित वही करता है इसलिए सरकार और सत्तारूढ़ पार्टी ने अगर किसानों को फिर से अपने पक्ष में कर लिया तो फायदा वैश्विक स्तर पर भी होगा।
(तोषी ज्योत्स्ना आईटी पेशेवर हैं। हिंदी और अंग्रेजी दोनों में समकालीन मुद्दों पर लिखने में गहरी दिलचस्पी रखती हैं। एक स्तंभकार और पुरस्कार विजेता कहानीकार भी हैं।)
— उक्त विचार लेखक के स्वयं के हैं।