फगुनाहट

अब न मदनोत्सव मनाया जाता है, न होली में वो हुड़दंग बचा है, न फगुनाहट में वो रस। जिंदा रहने के फेर में हम जीना भूल गए हैं। सुविधा के लोभ ने हमें सुख से वंचित कर दिया है…

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बसंत के आगमन पर मदनोत्सव मनाए जाने के साक्ष्य मिलते हैं। बसंत को बिदाई फगुआ अथवा होली से दी जाती है।

बीच के समय को फगुनाहट कहा जाता है और इसमें बूढ़े साँढ़ को सींग कटाकर बछड़ों में शामिल होने की छूट होती है। अब न मदनोत्सव मनाया जाता है, न होली में वो हुड़दंग बचा है, न फगुनाहट में वो रस। जिंदा रहने के फेर में हम जीना भूल गए हैं। सुविधा के लोभ ने हमें सुख से वंचित कर दिया है।

बनारस उस बूढ़े बुज़ुर्ग की तरह है जो काल की मुट्ठी से खींचकर भी अतीत को संजोए रखते हैं। बनारस ने जीवन के रस को उसी तरह संजोहकर रखा हुआ है। बनारस के पानवाले और चायवाले तक मोक्ष की चर्चा करते हैं। शायद मृत्यु की सहज स्वीकार्यता से जीवन सुधा की प्राप्ति होती है और यही बनारस के जीवन का अमृत-तत्त्व है।

बसंत के अवतरण दिवस पर मदनोत्सव मनाए जाने के साक्ष्य मिलते हैं। बसंत को बिदाई फगुआ अथवा होली से दी जाती है। बीच के समय को फगुनाहट कहा जाता है और इसमें बूढ़े साँढ़ को सींग कटाकर बछड़ों में शामिल होने की छूट होती है।

चूँकि मैं बनारस में रहा हूँ और कुछ न कुछ, बहुत थोड़ा ही सही, मैं बनारस हो चुका हूँ। अतः यह मेरा उत्तरदायित्व है कि सम्पूर्ण विश्व में जीवन का रसप्रवाह निरंतर बना रहे। फगुनाहट का आनंद लें।

फगुनाहट में ही घूरा जलाकर और जोगीरा और कबीर गाए जाते थे। एक पुराने मित्र ने दो जोगीरा 2015 की होली में साझा किया था जो आज भी गाए जाने योग्य हैं :

1.)देहलस एक शिगूफा अइसन, खून में हौ व्यापार…….
लहंगा उठा के घूंघट कईलस, सब कुछ भईल उघार..
जोगीरा सा रा रा रा ….

2.)महबूबा भी महंगे परली, खिलल तेल के धार,,
जौने हमके रांड बनवलस, उहे भईल भतार..
जोगीरा सा रा रा रा…

बच्चन जी ने असहयोग के समय के एक कबीर को अपनी किसी पुस्तक में स्थान दिया है, जिसमें भाषा थोड़ी प्रौढ़ हो जाती है।

गाँधी बबा का हुक्म हुआ है
घर-घर कातो सूत
छोड़ फिरंगी मुलुक हमारा
तेरी बहिन की …..

हमें आजादी लेनी है…

अब न मदनोत्सव मनाया जाता है, न होली में वो हुड़दंग बचा है, न फगुनाहट में वो रस।
जिंदा रहने के फेर में हम जीना भूल गए हैं। सुविधा के लोभ ने हमें सुख से वंचित कर दिया है।

बनारस उस बूढ़े बुज़ुर्ग की तरह है जो काल की मुट्ठी से खींचकर भी अतीत को संजोए रखते हैं। बनारस ने जीवन के रस को उसी तरह संजोहकर रखा हुआ है।

चूँकि मैं बनारस में रहा हूँ और कुछ न कुछ, बहुत थोड़ा ही सही, मैं बनारस हो चुका हूँ। अतः यह मेरा उत्तरदायित्व है कि सम्पूर्ण विश्व में जीवन का रसप्रवाह निरंतर बना रहे। फगुनाहट का आनंद लें।

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