“हटा दो सब बाधाएँ मेरे पथ की,
मिटा दो आशंकाएँ सब मन की,
ज़माने को बदलने की शक्ति को समझो,
कदम से कदम मिला कर चलने तो दो मुझको”
“महिलाएं आगे बढ़ रही हैं…” “देश बढ़ रहा है…” “सिनारिओ बादल रहा है…” “महिला सशक्तिकरण हो रहा है…” – ये कुछ पंक्तियाँ हैं जो आजकल हम सब की ज़ुबान पर यदा कदा बसी हुई हैं। पर क्या असली मायने में महिलाओं का सशक्तिकरण हो रहा है???
सन 1931 में हुये दूसरे गोल मेज़ सम्मेलन में महात्मा गांधी ने कहा था कि वे एक ऐसे समाज की कल्पना कर रहे हैं जिसमें औरत को राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक, सभी दायरों में समान अधिकार मिलेंगे व वे स्वाभिमान व सम्मान से जीवन यापन कर सकेंगी। पर क्या आज 85 वर्षों के पश्चात हम खुद से वही सवाल पूछ सकते हैं-क्या महिला सशक्तिकरण हो रहा है?
जवाब है-हाँ!
कुछ मुट्ठी भर नाम जो अपने अपने क्षेत्र में उल्लेखनीय प्रदर्शन कर चुकी हैं, उनका नाम तो हमेशा से ही ससम्मान लिया जाता रहा है। पर देखा जाए तो कुछ कर जाने वाली महिलाएं तो हर काल में रही हैं। सीता हो या द्रौपदी, रानी लक्ष्मी बाई हो या रज़िया सुल्तान, सावित्री बाई फुले हो या इन्दिरा गांधी, किरण बेदी हो या साइना नेहवाल!!! महिलाएँ अलग अलग समय पर, जीवन के विभिन्न मोड़ पर, हर क्षेत्र मैं अपनी छाप छोड़ती आयीं हैं। पेप्सिको की CEO, ICICI बैंक की MD, किरण बेदी, कल्पना चावला, फूलन देवी, मेधा पाटकर, और कई नाम ऐसे हैं जो सब बंधनों को तोड़ कर आगे निकाल आयीं और फिर कभी पीछे मुड़ कर नहीं देखा। पूजा ठाकुर को देखिये, वह पहली एशियायी महिला हैं जो US राष्ट्रपति के आगमन पर गार्ड ऑफ ऑनर में लीड कर रही थी। दिल्ली की करोल बाग बाज़ार के तंग गलियों में माया देवी ऐसा नाम है जो हजारों की तादाद में कमीज़ सिल कर बेचने का कार्य काफी कुशलता के साथ करती है। अरुणिमा सिन्हा ऐसी महिला हैं जो एक पैर न होने की स्थिति में भी माउंट एवरेस्ट की चोटी तक चढ़ी। छवी रजावत पहली महिला सरपंच हैं। किसी भी व्यवसाय का आप नाम लीजिये, आपको चहुं ओर महिलाओं का नाम सर्वोत्तम स्तर पर दिखाई पड़ेगा। हमारे संविधान निर्माताओं ने महिलाओं को देश स्वतंत्र होने के साथ ही वोट डालने का अधिकार दिला दिया था जबकि US जैसे देश अपनी महिलाओं को यह हक़ अपने संविधान की रचना के कई वर्षों के बाद ही दिला पाये। प्राचीन काल से औरत को एक पिछड़ा लिंग ही समझा जाता था जो घर के पुरुष पर ही सम्पूर्ण रूप से निर्भर थी। पर यह सब अब एक अतीत का हिस्सा हो चुका है। एक लंबी काली अंधेरी रात के बाद एक रौशन दिन हमारा इंतज़ार कर रहा है और हम एक नए दौर में कदम रख चुके हैं। सती प्रथा का अंत हो चुका है, दहेज प्रथा व घरेलू उत्पीड़न इत्यादि पर काफी हद तक रोक लग चुकी है। प्रसव के दौरान मृत्यु की दर काफी कम हो चुकी है। आज की नारी शादी टूट जाने पर खुद टूट नहीं जाती। अपितु वह और भी आत्मनिर्भर व स्वस्थ बनने का प्रयास करती है।
हम अब हर वर्ष ज़ोर शोर से अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस मानते हैं। पर आज एक सवाल खड़ा हो गया है कि क्या महिलाओं की स्थिति में सही मायने में सकारात्मक एवं सार्थक परिवर्तन आया है? और इससे महत्वपूर्ण सवाल यह है कि इस परिवर्तन को किस तरह देखा गया?
नीतियाँ, नियम-अधिनियम, कानून, सब अपनी जगह पर हैं। समय है सोच में परिवर्तन लाने का। आज की इस भागती दौड़ती ज़िंदगी में गर घर की औरत बराबर भागीदारी न ले तो निर्वाह करना मुश्किल हो जाता है। आज चारों ओर बड़े बड़े मौल दिखाई दे रहे हैं। गौरतलब यह है कि मौल के अधिकतर स्टाफ में लड़कियां ही दिखाई देंगी चाहे सेक्युर्टी स्टाफ हो या काउंटर पर सेल्स स्टाफ। टेलीविज़न पर एंकरिंग हो या जर्नलिज़्म। पुलिस हो या देश प्रशासन। बात सिर्फ पैसे कमाने की नहीं है। बात है बाहर निकलने की, आगे बढ़ने की, सकारात्मक सोच के साथ कुछ कर सकने की।
ज़रूरत है उनके हुनर को पहचान कर सही रूप से उभारने की दृष्टि से प्रयास करना। कौनसा हुनर कब कौशल बन कर इनकी जीवन रेखा बन जाए, ये सब निर्भर करता है आपकी और हमारी सोच के बदलाव पर। तभी हर लड़की एक खुशहाल भविष्य की कामना कर सकेगी। तभी घर बढ़ेगा, देश बढ़ेगा। तभी होगा असली सशक्तिकरण।
परंतु दुर्भाग्यवश महिलाओं के साथ हो रहे अपराध अब भी हैं, चाहे घर के अंदर हो या कार्यस्थल पर। कुछ लोगों की नीच हरकतों के कारण अन्य महिलाओं व लड़कियों के बाहर जाने के खिड़कियाँ बंद की जा रही हैं। यहाँ फिर से यह कहना उल्लेखनीय है कि बात बुर्का पहन कर निकलने या मिनी स्कर्ट पहनने की नहीं है, बात है एक नारी के आत्म सम्मान की सुरक्षा व उसे समाज में उसके हक़ का एक स्थान दिलाने की। तो अब समय है उन बंद खिड़कियों को दरवाजों में बदल देने का, और उन दरवाज़ों को खोल कर रौशनी को अंदर आने देने का…
इसी कड़ी में एक महत्वपूर्ण खिड़की है, आत्मनिर्भरता। जो आती है शिक्षा से। केवल डॉक्टर इंजीनियर बनना ही सब कुछ नहीं। सिलाई का काम, केटरिंग व्यवसाय, ब्यूटी पार्लर, दूसरों को पढ़ाना, सर्व शिक्षा व प्रौढ़ शिक्षा में हिस्सेदारी, SMEs (छोटे व मध्यम दर्जे के उद्यम) और कई ऐसे कार्य हैं जिनमें बढ़ चढ़कर और भी महिलाएं आगे आ सकती हैं। हर लड़की में एक हुनर है। ज़रूरत है उनके हुनर को पहचान कर सही रूप से उभारने की दृष्टि से प्रयास करना। कौनसा हुनर कब कौशल बन कर इनकी जीवन रेखा बन जाए, ये सब निर्भर करता है आपकी और हमारी सोच के बदलाव पर। तभी हर लड़की एक खुशहाल भविष्य की कामना कर सकेगी। तभी घर बढ़ेगा, देश बढ़ेगा। तभी होगा असली सशक्तिकरण।
कहते हैं न, “एक बेटा पढ़ जाए तो बेटा पढ़ जाता है, अपर एक बेटी पढ़ जाए तो पीढ़ियाँ पढ़ जाती हैं”। या यूँ कहना चाहिए , “बेटी बढ़ जाए, तो मानव सभ्यता बढ़ जाए”…