“चुन- चुन कर अनुभव के मोती
बोलों में हूँ पिरोती
गुरू चरणों में हार बनाकर
करती उन्हें समर्पित ”
आत्मसाक्षात्कार—-इसका मतलब आत्मा का अनुभव नही हैअपितु पूर्ण संयम है| स्वयं को पहचानने की क्षमता| व्यक्तित्व की हर अवस्था का ज्ञान| जहाँ अपने से कुछ भी छिपा नहीं रहता| जहाँ हम अपनी वासना , कामना , क्रोध अहंकार सबको देखते हैं और धीरे- धीरे उसके कारण को जानने का प्रयत्न करते हैं( प्रत्याहार ) ताकि उनपर नियंत्रण किया जा सके| बल पूर्वक नहीं बल्कि स्वतः|
इन्द्रियों का स्वभाव है एक संबंध को पकड़ना| अतः दृश्य जगत से इन्होंने अपना एक संबंध बना रखा है| इसी प्रवाह का रुख बदलना है जिसका फार्मूला है—
प्रत्याहार + भक्ति = आंतरिक स्थिरता