मलों का निष्कासन शुद्धिकरण की स्वाभाविक प्रक्रिया है , चाहे वह तन का हो अथवा मन का । इस प्रक्रिया में धूल के कण भी उड़ते हैं और वातावरण भी दुषित होता है । आध्यात्मिक पथ पर साधक जैसे – जैसे आगे बढ़ता है रेचन की प्रक्रिया में तेजी आने लगती है । ऐसे में गुरु के प्रति श्रद्धा और विश्वास ही एकमात्र अवलंबन बनते हैं जहां स्वयं गुरु रेचक की भूमिका निभाते हैं और अवलंबन स्वरूप किसी आत्मीय को खड़ा करते हैं जो निकलने वाले कचड़े का आघात वहन करने में सक्षम हो । यह सामर्थ्य भी गुरु अनुग्रह का प्रतिफल है। क्योंकि शुद्धिकरण की इस प्रक्रिया में न जाने कितने जन्मों की नकारात्मकता व्यवहार में परिलक्षित होने लगती है । ऐसे में साधक भ्रमित एवं व्याकुल हो उठता है , जिससे सिर्फ गुरू की अनुकम्पा ही मुक्ति दिलाने में सक्षम है ।
एक मूर्तिकार पत्थर को अपनी छेनी हथौड़ी से काट – छांट कर बड़ी सुंदर आकृतियां बनाया करता था । किसी ने उसकी प्रशंसा करते हुए कहा :– आप बड़ी सुंदर मूर्तियां गढ़ते हैं । शिल्पकार ने मुस्कुराते हुए बड़ी विनम्रता के साथ कहा :– सुंदरता तो इस पाषाण में पहले से ही मौजूद थीं मैंने तो बस इस पर से अनावश्यक हिस्से को हटा दिया है । ठीक उसी प्रकार गुरु एवं ईष्ट भी अपने प्रिय के व्यक्तित्व को काट – छांट कर निखारने का प्रयास करते हैं । इस रेचन की प्रक्रिया में जाने कितने आघात सहने पड़ते हैं किन्तु धैर्य , समर्पण एवं विश्वास की पूंजी ही रूपांतरण की आधारशिला होती है जो नूतन एवं सौम्य रूप प्रदान करती है ।
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