योग का शारीरिक एवं अध्यात्मिक पक्ष
” प्रसनन्ता उर आनहु सबहीं कहै समझाए
षट् रिपु द्वार खड़े हैं प्रभुजी दीजो राह बताए “
योग का इतिहास नया नहीं अपितु सनातन रहा है और सबका सार—” परमानन्द की अनुभूति ” रहा है| पिछले पचास वर्षों में योग का प्रचार एवं प्रसार घर-घर हो चुका है परन्तु मानसिकता में विकृति भी अपनी चरम सीमा पर है| स्वामी सत्यानन्द सरस्वती जी के परम प्रिय शिष्य, हमारे परम पूज्यनीय गुरू जी स्वामी निरंजनानन्द सरस्वती जी ने इस विषय पर गहन चिंतन एवं मनन किया है| निष्कर्ष यह निकला है कि जिस अमृत रूपी योग का पान करके हमारे तृषित ओठों ने अपनी प्यास बुझाई है उसकी पवित्रता का लेश मात्र भी हमने स्पर्श नही किया है| योग का शारीरिक पक्ष तो उजागर होता गया पर अध्यात्मिक गौण रहा | उस आध्यात्मिकता का आधार है——सद् विचार, सत्कर्म और सद् व्यवहार|
प्रेम की अपार शक्ति
भक्ति जीवन में एक मनोवैज्ञानिक और भावनात्मक परिवर्तन है| इसका संबंध आन्तरिक भावना से हैं जो व्यक्तिगत है, मन और मस्तिष्क से कतई नही है| भक्ति की शुरूआत प्रेम की भावना से होती है जो सीमित न होकर असीमित होती है| यह एक उर्जा है जिसमें अपार शक्ति निहित है| इसे बतलाया नही जा सकता सिर्फ अनुभव किया जा सकता है| नारद भक्ति सूत्र में कहा गया है——“अनिर्वचनीयं प्रेम स्वरूपम