यौगिक जीवन में आत्मिक-विश्लेषण को प्राथमिकता दी गई है क्योंकि जब तक हम अपनी प्रकृति को नहीं समझेंगे तब तक इसे साधने की बात तो दूर इसमें प्रवेश भी सम्भव नहीं। यदि हम सुबह से शाम तक अपनी दिनचर्या का विश्लेषण करेंगे तो पाते हैं कि योग के सारे आयाम दिन – रात हमारे पहलू में साथ – साथ चल रहे होते हैं , कभी आगे तो कभी पीछे , पर हैं आस – पास ही ।
बस अपने व्यवहार में इनकी अभिव्यक्ति को सजगता पूर्वक , दृष्टाभाव से देखना है एवं सहज रूप से बिना किसी विशेष चेष्टा के इन्हें आवश्यकतानुसार परिष्कृत करने का प्रयास करते रहना है ताकि हम अपने जीवन की विषमताओं को एक सम धरातल प्रदान करने में सक्षम बन सकें और इन्हें तम से सत की ओर जाने के लिए प्रेरित कर सकें । आत्मविश्लेषण आजीवन चलने वाली प्रक्रिया है जिसमें निरंतरता आने पर व्यवहार में परिणाम प्रकट होने लगता है और अंततः वह प्रवृत्ति बन जाती है जो प्रयास की परिणति है।
— सं. योग प्रिया ( मीना लाल )