पूरे भारत में १५-१६ जनवरी को संक्रांति पर्व मानाने की परंपरा है। प्रवासी संवाद की साहित्य संपादक तोषी ज्योत्स्ना ने इस दिन के महत्व को अपने संस्मरण के रूप में प्रस्तुत किया है :
तिलवत् स्रिग्धं मनोऽस्तु वाण्यां गुडवळ्माधुर्यम्।
तिलगुडलडुकवत् सम्बन्धेऽस्तु सुवृत्तत्वम्।
अर्थात इस त्योहार पर तिल समान हम सभी के मन स्नेहमय हो, गुड़ समान हमारे शब्दों में मिठास हो और जैसे लड्डू में तिल और गुड़ की प्रबल घनिष्ठता है वैसे हमारे संबंध हों।
हमारे यहां भारत में मकरसंक्रांत सूर्य के उत्तरायण होने की ख़ुशी में नवधान्य के साथ खुशियां मनाने का त्यौहार है। पूरे भारत में इसे अलग अलग नाम से बुलाते हैं मगर मानाते सभी एक से उत्साह से हैं।
हमारे यहाँ रिवाज़ है संक्रांति के दिन गुड़ तिल अपने बेटों को खिलाने का। माता पिता अपने पुत्रों को गुड़ तिल खिलाकर वृद्धावस्था में अपना भार वहन करने की शपथ दिलाते हैं — कहते हैं कि बुढ़ापे में हमारा भार वहन करना। बेटियों से इसकी अपेक्षा नहीं की जाती क्योंकि उन्हें तो पराए घर जाना होता है। मैं घर की सबसे छोटी और सबसे लाडली थी, और इस बात से हर बार चिढ़ जाया करती कि भाई को गुड-तिल मिलेगा और मुझे नहीं! ऊपर से मेरा शरारती भाई उस दिन बड़ा चौड़ा होकर घूमता क्योंकि दादा दादी सब उसे प्यार से गुड़-तिल खिलाएंगे, खूब लाड़ लगाएंगे। मेरी मां हम बेटियों को भी गुड़ तिल खिलाती और कहती जानती हो बेटियों को शपथ दिलाने की जरूरत क्यों नहीं पड़ती, क्योंकि बेटियाँ हमेशा से जिम्मेदार होती हैं, उनको भार वहन करने के लिए शपथ लेने की जरूरत नहीं होती। मेरा बाल मन बहुत खुश हो जाता था। जब बड़ी हो गई तो माँ के कहे का मतलब समझने लगी। हम बेटियाँ भार ही तो वहन करतीं हैं…अपने मायके के मान सम्मान का…अपने स्वसुर गृह का गौरव भी तो हम ही होतीं हैं।तिल जैसे परिवार को गुड़ बनकर बाँध लेती हैं। हमें शपथ लेने की जरूरत कहाँ पड़ती है।
मकरसंक्रांति को अब मैं भी गुड़-तिल खिलाती हूँ अगर अपने बच्चों को नहीं अपने ईश्वर को क्योंकि इस संसार मे ईश्वर के अलावा किसी में ऐसी शक्ति नहीं कि वह किसी का भार वहन एक क्षण के लिए भी कर सके। सब निमित्त मात्र हैं कर्ता तो बस ईश्वर ही है तो बस उस ईश्वर से ही भार वहन की प्रार्थना करती हूँ। अपने कर्तव्यों का सम्यक वहन कर सकूँ इसकी भी प्रार्थना है उनसे। सूर्यदेव के उत्तरायण होने की ख़ुशी में, धन-धान्य से खलिहान भरने की खुशी में मनाया जाने वाला त्योहार हम सब के जीवन में खुशहाली लाये।
आज के दिन पतंग भी उड़ाई जाती है। पतंगें, जैसे हमारी कल्पनाएँ, हमारे सपने, हमारा लक्ष्य जिसे पाने के लिए हम ऊँची उड़ान तो भरते हैं लेकिन उस जमीन से भी जुड़े रहते हैं जहाँ हमारे जड़ हैं। हमारी भारतीय संस्कृति भी यही तो सिखाती है कि चाहे जितने भी ऊँचे उड़ो, लेकिन अपनी ज़मीन, अपनी जड़ों से भी जुड़े रहो। नज़ीर अकबराबादी साहब का एक शेर है-
मैं हूँ पतंग-ए-काग़ज़ी डोर है उस के हाथ में
चाहा इधर घटा दिया चाहा उधर बढ़ा दिया
हम सब भी तो उस पतंग की ही तरह हैं जिसकी डोर उस ऊपरवाले के हाथ में है उसकी मर्जी से ही हम निर्बाध उड़ते रहते हैं और उसकी मर्जी से ही कट कर नीचे ज़मीं पर आ गिरते हैं।
आज सुबह तिल के लड्डू बाँधे, मगर गुड़ वाले नहीं। बच्चे मिल्कमेड वाले पसंद करते हैं और वे झटपट बनते हैं नारियल तिल और मूँगफली के झटपट लड्डू। बच्चे ख़ुश हैं मगर मुझे तो गुड़ के लड्डू ही पसंद हैं कभी बनाये नहीं हैं बस खाये ही हैं……. क्योंकि माँ हर साल संक्रांत पर बना भेजती थीं मगर इस वर्ष…..माँ के लड्डुओं की याद ही मुँह मीठा करेगी।
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