चिरुड्डी, झारखंड
दीवारों से दुनियाभर तक: चिरुड् डी गांव की महिलाओं ने यह साबित कर दिया है कि जब परंपरा को नए ज़माने से जोड़ा जाए, तो वह सि र्फ इतिहासही नहीं बल्कि भविष् य भी गढ़ती है। सोहराय अब सिर्फ एक पर्व नहीं, एक आंदोलन है — आत्मनिर्भरता, पहचान और सृजन का ।
झारखंड के हज़ारीबाग जिले का एक छोटा सा गांव चिरुड्डी — जहां कभी दीवारें सिर्फ मिट्टी की संरचना होती थीं, आज वो कला की ज़िंदामिसाल हैं। यहां की महिलाएं सदियों पुरानी सोहराय पेंटिंग के ज़रिए अपनी सांस्कृतिक विरासत को तो सहेज ही रही हैं, साथ ही आर्थिकआत्मनिर्भरता की ओर भी कदम बढ़ा रही हैं।
त्योहार से रोज़गार तक
सोहराय, झारखंड का एक पारंपरिक त्योहार है जो दीवाली के बाद मनाया जाता है। इसे ‘पशु पर्व’ भी कहा जाता है, जब गांव की महिलाएंगाय, बैल और अन्य पशुओं को सजाकर उनकी पूजा करती हैं और अपने घरों की मिट्टी की दीवारों पर आकर्षक चित्र बनाकर त्योहार का स्वागतकरती हैं।
कभी सिर्फ त्योहार तक सीमित रही यह पेंटिंग अब कैनवस, तौलिए, साड़ियां, खंभे और पेड़ों की छालों तक फैल चुकी है। घर–घर की दीवारेंलोककला के जीवंत संग्रहालय बन चुकी हैं।
कला को मिला नया आयाम
अनिता देवी, जो गांव की वरिष्ठ कलाकार हैं, कहती हैं, “पहले हम धूधि मिट्टी, लाल और काली मिट्टी से रंग बनाते थे। अब दीवारें पक्की हो गईहैं, तो सिंथेटिक रंगों का इस्तेमाल करते हैं, लेकिन भावना वही है।”
सोहराय चित्रों में पहले गोल आकृतियां, फूल और प्राकृतिक तत्व होते थे। अब इसमें मानव आकृतियां, सामाजिक संदेश और स्थानीयजीवन के दृश्य भी दिखने लगे हैं।
एक कलाकार की कोशिश, कई ज़िंदगियों में बदलाव
इस कला को नया जीवन देने वाले हैं मनीष कुमार महतो, जो खुद एक स्थानीय कलाकार हैं। जब उन्होंने देखा कि पक्के मकानों के बनने सेमिट्टी की दीवारें कम हो रही हैं, तो उन्हें चिंता हुई कि यह कला लुप्त न हो जाए।
अप्रैल 2024 में मनीष ने गांव में कला प्रतियोगिताएं शुरू कीं और महिलाओं को दीवारों से आगे सोचने के लिए प्रेरित किया। पहले महिलाएंझिझकती थीं, लेकिन मनीष के प्रयासों से आज गांव की 15 से अधिक महिलाएं इस कला से जुड़ चुकी हैं और यह संख्या बढ़ती ही जा रही है।
तौलियों से साड़ियों तक फैला रंग
अब यह पेंटिंग सिर्फ दीवारों पर नहीं, बल्कि तौलियों और साड़ियों पर भी की जा रही है। महिलाओं को हाल ही में 1,000 पेंटेड तौलियों काऑर्डर मिला है, और हर तौलिया ₹150 में बिकता है, जिससे उन्हें आर्थिक आत्मनिर्भरता मिली है।
मीना देवी, जो अब इस कला से नियमित आमदनी कमा रही हैं, कहती हैं, “पहले त्योहार में शौक था, अब रोज़गार है। जब मेरी बनाई डिज़ाइनकिसी कपड़े पर छपती है, तो गर्व होता है।”
पहचान बना रही है कला
अब हर उत्पाद पर कलाकार का नाम लिखा जाता है। मनीष बताते हैं, “हम चाहते हैं कि हर चित्र के साथ उसकी कलाकार की कहानी भी जुड़ीहो। यह सिर्फ एक डिज़ाइन नहीं, बल्कि पहचान है।”
आगे की राह
भविष्य में मनीष स्थायी प्रदर्शनियों, कला संग्रहालय और कार्यशालाओं की योजना बना रहे हैं, जिससे यह कला न केवल संरक्षित हो, बल्किराष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पहचान भी पा सके।