बनारस एक ऐसा शहर है जहाँ इतिहास अपने सम्पूर्ण वैभव के साथ वर्तमान से मिलता है और वर्तमान भी उदार हृदय से उसका आलिंगन करता है। किसी में किसी पर हावी होने की कोई इच्छा नहीं, बस स्वीकृति ही स्वीकृति है। यही स्वीकृति बनारस को वो मस्ती देती है जिसे बनारसीपन कहते हैं
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बंगाली बालाओं में बला का आकर्षण होता है और उस पर से जब सरस्वती पूजा में वे सोलहों श्रृंगार कर के निकलती थीं तो ऐसा लगता था कि मानो इंद्र की सभा से अप्सराएँ मदनोत्सव मनाने पृथ्वी पर आईं हैं। उनको देख भर लेने से दिन सार्थक हो जाता था सो हम भी नहा धोकर, सीमित संसाधनों और शक्ल की विवशता के बावजूद भी बन सँवर कर निकलते थे।
बंगालियों पर माता सरस्वती की विशेष कृपा रही है। विश्व में शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति हो जो गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर के समान एक अद्भुत कवि, एक विलक्षण कहानीकार, एक महान दार्शनिक और एक अद्वितीय संगीतकार हो। इतनी कला तो बस माता की कृपा से ही सम्भव है। कला के आशीर्वाद पर ही माता की कृपा रुक गई हो ऐसा भी न था। हमारे समकालीन बंगाली मित्रों को उन रमणियों के सान्निध्य का सुख माता के आशीर्वाद से ही मिल रहा था।
बिहार और उत्तर प्रदेश की कन्याएँ भी कम आकर्षक नहीं होती। भीष्म जैसे ब्रह्मचारी ने भी काशी राज की कन्याओं का हरण किया था पर महाभारत की इसी कथा में घनघोर चेतावनी है। वही हरण कालांतर में उनकी शरशैय्या और फिर मृत्यु का कारण बना था। इसके अलावा हिंदीभाषी कन्याएँ उस प्रकार खुल कर मिलती भी न थीं सो अपने बंगाली भाइयों को जोड़े में देखकर दुखी हम हिंदीभाषियों को नंददास (आरसी प्रसाद सिंह) की इन पंक्तियाँ का ही सम्बल था :
कहाँ वधू सौंदर्य सिंधु का मोती अनुपम,
और कहाँ वर निपट कुरूप अनाड़ी निर्मम।
विधि ने हाय मिलाया कैसा है यह जोड़ा?
कहाँ पद्मिनी और कहाँ काबुल का घोड़ा?
शत्रु और प्रतियोगी हमेशा खल और अयोग्य दिखते हैं। उनकी सारी सफलता को हम बड़ी सरलता से छल-कपट करार देते हैं। हमारे समकालीन बंगाली मित्रों में कोई टैगोर या नेताजी जैसा व्यक्तित्व न था। वैसे लोग इतिहास में भी कम ही हुए हैं।
रमणियों के साथ की सबकी महत्त्वाकांक्षा होती थी और ऐसे में अपने बंगाली मित्रों को उनका साथ मिल जाने को हम उनकी सफलता मानते थे, भले उन्हें पैसा देने वाले सेवक से अधिक का मुकाम हासिल न था। सब जानते हुए भी यह सफलता रश्क का विषय तो था ही। कुल के बावजूद हम इस सफलता को मात्र भाग्य का संयोग मानने को तैयार न थे। हमें कहीं न कहीं से ऐसा लगता था कि उन्होंने हमारे अधिकारों पर डाका डाला है। बाहुबल यह भ्रम उत्पन्न करता है कि हर सुंदर वस्तु हमारे हक की है और इसी भावना से कुछ हिन्दीभाषी अपना हक वापस छीनने पर आमादा हो जाया करते थे और फिर शुरु होता था छींटाकशी और फब्तियों का सिलसिला।
मेरा अपने समूह में बड़ा मान था जिसका एक कारण था मेरे सिर पर हुआ चंद्रोदय। दूसरा कारण यह था कि मैं चाय समोसे का सबसे दीर्घकालिक प्रायोजक था।
मैं साफ कह देता कि यदि लड़कियों पर फब्तियां कसी जाएँगी तो मैं साथ न जाऊँगा। अन्य कई मित्र भी इसी मान्यता के थे सो हम घूमते तो थे पर लड़कियों पर फब्तियाँ नहीं कसते थे। कला संकाय में यूँ भी सहशिक्षा न थी सो हममें से अधिकतर लोगों को अपरिचित स्त्रियों से उचित व्यवहार करना न आता था। ऐसे में हम छेड़खानी से लेकर फब्तियाँ तक सभी कुछ लड़कों के साथ ही करते थे। मसलन शरीर से रगड़ते हुए चलना, साइकिल से धक्का मारना, उनको मौगा कहना इत्यादि। राजा बलदेवदास जुगलकिशोर छात्रालय (बिरला होस्टल) में रहने वाले सभी बंगाली मित्र हमारे बढ़ाव को तत्क्षण रोक सकते थे, पर वे ऐसा करते न थे। सुख-सुविधा पा चुका व्यक्ति और समाज प्रायः शांतिप्रिय हो जाता है। स्मरण रहे कि पशुओं में भी प्रतिस्पर्धा यौन आवश्यकताओं की और शिकार भोजन की विवशता से अधिक कुछ भी नहीं। मनुष्य भी संरचना के स्तर पर पशु ही है और डार्विन वादी तो वनमानुष को अपना बाप मानते भी हैं।
बसन्त-पंचमी हमारे लिए उत्साह लेकर आता पर जाता-जाता हमें निराश कर जाता। हम शाम को अपनी असफलताओं के साथ छात्रालय लौट आते और तब तय होता था पश्चात्य वैलेंटाइन डे का एजेंडा। हमारे जो सहपाठी बसन्त-पंचमी के दिन अत्यधिक दुखी होते वे इस एजेंडे में बढ़-चढ़कर बोलते। वैलेंटाइन डे में जोड़ों को अपमानित करने वाला कुत्सित कर्म इसी दुख की अंतिम परिणति हुआ करता था।
जब बुढ़ापा द्वार पर आता है तो हम कुछ वर्षों तक उसे इसी प्रकार के यौवन के संस्मरण सुनाकर द्वार पर ही रोकने की कोशिश करते हैं। नियम-परहेज करता अधेड़, नोस्टाल्जिया और खिजाब के सहारे यौवन को बरकरार रखने की चेष्टा करता ही है। वैसे डार्विन-वादियों के पिता बुढ़ापे में भी घुलाटियाँ मारना नहीं छोड़ते।
आज मेरी कोशिश भी कुछ ऐसी ही है और मंशा तो खैर…
बसन्त-पंचमी और सरस्वती पूजा की शुभकामनाएं।