1990 के दशक के मध्य तक, भारत की पटरियों पर चलती भाप इंजन ट्रेनों की चुक–चुक–चुक आवाज़ एक जानी-पहचानी धुन थी एक ऐसी ध्वनि जो सफ़र और यादों, दोनों को जगा देती थी। बहुतों के लिए ये ताक़तवर इंजन सिर्फ़ यात्रा का साधन नहीं थे, बल्कि भारत की जीवित विरासत का हिस्सा थे।
आज, दार्जिलिंग हिमालयन रेलवे और नीलगिरि माउंटेन रेलवे जैसी कुछ विरासत रूट को छोड़कर, भाप इंजन की जगह डीज़ल और इलेक्ट्रिक इंजन ने ले ली है। एक दौर का औद्योगिक रोमांस अब इतिहास बन चुका है।
लेकिन कोलकाता में जन्मे कलाकार किशोर प्रतीम बिस्वास के लिए, भाप इंजन कभी भी चुपचाप गुम नहीं हो सकते थे। 1971 में जन्मे किशोर ऐसे समय में बड़े हुए जब ये इंजन अब भी भारतीय यात्राओं की धड़कन थे। उनके चाचा लोकोमोटिव ड्राइवर थे और अक्सर उन्हें इंजन की सवारी पर ले जाते, रास्ते की कहानियाँ सुनाते।
“कभी-कभी मैं मोटरमैन के साथ इंजन में बैठता था,” किशोर मुस्कुराते हुए कहते हैं। “अंदर बहुत गर्मी होती थी, लेकिन क्रू हमेशा हंसते रहते थे। वे सच में सहनशक्ति और हुनर के उस्ताद थे।”
कोलकाता की पटरियों से मुंबई की कैनवस तक
किशोर ने 1996 में गवर्नमेंट कॉलेज ऑफ़ आर्ट एंड क्राफ्ट, कोलकाता से फ़ाइन आर्ट्स में डिग्री ली। शहर में मौके कम थे, इसलिए 2009 में वे मुंबई चले गए जहाँ उन्हें बड़े सपने देखने और पूरे करने का मौका मिला।
वही सपना था इंडियन स्टीम लोकोमोटिव्स—25 साल में बना एक चित्र-श्रृंखला। यह सिर्फ़ ट्रेनों को नहीं दिखाती, बल्कि 1970 के दशक की यात्रा के अनुभव और इंजन व रेलवे कर्मचारियों के गर्वीले स्वभाव को सजीव कर देती है।
“इंजन के रंग ज़्यादातर काले और स्लेटी होते थे, बदन पर धूल-मिट्टी लगी रहती थी लेकिन यही उनकी असली पहचान थी। मैंने इनके जैसा आकर्षक दृश्य कभी नहीं देखा,” किशोर कहते हैं।

यादों और दिल से बनी पेंटिंग्स
यह प्रोजेक्ट कोलकाता में शुरू हुआ, जहाँ किशोर रोज़ घंटों रेलवे वर्कशॉप में स्केच बनाते थे। यहाँ मशीनें जीवंत थीं, जिनकी देखभाल फायरमैन, मोटरमैन और इंजीनियर मिलकर करते थे। स्केच बाद में वॉटरकलर, ऑयल, पेन और इंक से पेंटिंग में बदल गए।
लेकिन 1993 में उन्होंने एक दर्दनाक दृश्य देखा भाप इंजनों को तोड़कर कबाड़ में बदलते हुए।
“मैं रो पड़ा,” वे याद करते हैं। तभी से उनकी पेंटिंग्स एक श्रद्धांजलि बन गईं जितनी असलियत से, उतनी ही यादों से।
उनकी कलाकृतियाँ सिर्फ़ मशीन नहीं दिखातीं, बल्कि इंसानी कहानियाँ भी कहती हैं—रेलवे कर्मचारियों के चेहरे, जिन पर मेहनत के निशान हैं, सिर पर लाल पगड़ी, और हर ब्रश स्ट्रोक में उनके गर्व और संघर्ष की गूंज।
सालों में किशोर की शैली नाज़ुक वॉटरकलर से बदलकर बोल्ड ऐक्रिलिक में आई, लेकिन उनकी कला का मकसद वही रहा भविष्य की पीढ़ियों के लिए भाप यात्रा की रोमांस को बचाना। जिन एनआरआई ने भारत छोड़ा था, जब तक डीज़ल और इलेक्ट्रिक इंजन पूरी तरह नहीं आए थे, उनके लिए किशोर की पेंटिंग्स सिर्फ़ कला नहीं, बल्कि एक प्रिय अतीत की खिड़की हैं।
उनकी श्रृंखला हमें याद दिलाती है कि तकनीक आगे बढ़ती रहती है, लेकिन कुछ यात्राएँ भाप और इस्पात की यादों में हमेशा ज़िंदा रहती हैं।





