तोषी ज्योत्स्ना/
भारत में कोरोना विषाणु के द्विरागमन ने जितना कोहराम मचाया है उससे कहीं अधिक सरकार और सरकारी तंत्र तथा गैर जिम्मेदार समाज की पोल खोली है | कोविड 19 नामक इस विषाणु का पदार्पण सन 2019 में ही हो गया था और साल 2020 हमने भगवान भरोसे थाली पीट, घरों में बंद होकर निकाल भी लिया था | अनजान बीमारी और सीमित साधनों के साथ भी हमने बीमारी का सामना मजबूती से किया। हालांकि उस समय भी जान माल का नुकसान बहुत हुआ था लेकिन स्थिति नियंत्रण में आती प्रतीत होने लगी थी। आम जनजीवन भी सामान्य होने लगा था हाट बाज़ार मे रौनक वापस आने लगी थी। भागे हुए प्रवासी अपने रोजगारों पर वापसी करने लगे थे। लेकिन इस सब में एहतियात यानि सावधानी सब ने छोड़ दी। क्या सरकार क्या सरकारी तंत्र और क्या जनता सब के सब लापरवाह हो गए |
सरकारी टैग लाइन “ सावधानी हटी दुर्घटना घटी “ जो हर हाईवे, हर चौक चौराहे पर लिखा हुआ दिखता है उसको स्वयं सरकार ने भी इस परिपेक्ष्य में नहीं देखा और ना ही गुना। सरकार ने अपना ध्यान कोरोना से हटा कर चुनावी दंगल में लगा दिया , दो ग़ज दूरी और मास्क अब जरूरी नही रह गया था। सरकारी तंत्र तो वैसे ही ढीला ढाला है। पूरे साल घरों में बंद जनता को तो जैसे कसर पूरी करनी थी सब के सब ऐसे निकल गए जैसे बीता साल एक दुःस्वप्न रहा हो। कोरोना से जंग जीत निकल पड़े कुम्भ स्नान के लिए, जैसे कोरोना का तर्पण करने आए हों। लेकिन लापरवाही की नतीजे धीरे धीरे इतने भयावह होंगे इसका अंदेशा शायद किसी को भी नहीं था। कोरोना की प्रथम लहर से निकलने के बाद कई कयास भी लगाए गए, हर्ड इम्युनिटी की बात कही गई। अमेरिका ब्रिटेन फ्रांस जैसे विकसित देशों से बेहतर आंकड़ों और प्रबंधन की बात कही गई। कोरोना रोधी टीकों के मामले में तो हमने मैदान ही मार लिया था। लेकिन हम आत्मश्लाघा में इतने रत हो गए कि कोरोना की दूसरी लहर की न कोई तैयारी की न ही दूसरे देशों को देख कुछ सबक लिया। पल पल रूप बदलने वाले इस विषाणु को इतना हल्के में लेना सरकार की दूरअंदेशी पर सवाल खड़े करता है।
देश जब आपदा से जूझ रहा हो तो आंकड़ों का प्रबंधन सरकार का काम नही होता। सरकार का काम होता है पहले से ही किसी भी आपदा के लिए तैयार रहना। सरकार का काम होता है सुविधाओं का प्रबंधन, जनता की जरूरतों को सहज उपलब्ध कराना। लेकिन सरकार ने इसके उलट आंकड़ों के प्रबंधन को तरजीह दी। जनता प्राणवायु के लिए हाहाकार करती रही सरकार आंकड़ों के प्रबंधन में लगी रही। प्रशासन की नाक के नीचे ऑक्सीजन और जीवनरक्षक दवाओं की कालाबाज़ारी होती रही लेकिन सरकार आंकड़ों के प्रबंधन में लगी रही। परीक्षण ही नहीं होंगे तो आंकड़े कहाँ से बनेंगे! स्वास्थ्य के मामले में देश की समानांतर व्यवस्था ने आपदा में अवसर ढूंढ लिया। लोगों की जान के साथ माल का भी खूब नुकसान हुआ। जीवन बचाने की गरज़ से लोगों ने क्या क्या दाँव पर लगाया ये आये दिन समाचारों की सुर्खियों का हिस्सा बना। भारत की जनता का भी असली रूप इसी व्याज से देखने को मिला, ये जो कालाबाज़ारी हो रही है ये कौन कर रहा है, इलाज के नाम पर वसूली जाने वाली अनापशनाप रकम की उगाही कौन कर रहा है? क्या ये आपके हमारे जैसे ही लोग नहीं हैं ? क्या ये सब कानून और सरकार के दायरे में नही आते?
कोरोना की प्रथम लहर से निकलने के बाद कई कयास भी लगाए गए, हर्ड इम्युनिटी की बात कही गई। अमेरिका ब्रिटेन फ्रांस जैसे विकसित देशों से बेहतर आंकड़ों और प्रबंधन की बात कही गई। कोरोना रोधी टीकों के मामले में तो हमने मैदान ही मार लिया था। लेकिन हम आत्मश्लाघा में इतने रत हो गए कि कोरोना की दूसरी लहर की न कोई तैयारी की न ही दूसरे देशों को देख कुछ सबक लिया। पल पल रूप बदलने वाले इस विषाणु को इतना हल्के में लेना सरकार की दूरअंदेशी पर सवाल खड़े करता है।
हस्बेमामूल यह कि सरकार होने का मतलब जनता का प्रबंधन होता है, आंकड़ों का प्रबंधन नहीं ! एक सौ तीस करोड़ जनता के प्रबंधन से आसान सरकार को आंकड़ों का प्रबंधन ही लगा सो जी जान लगा कर उसी को किया। बाकी जनता का क्या है जनता तो भूल जाती है। भूल जाएगी उन नदी में तैरती लाशों को, भूल जाएगी इलाज और ऑक्सीजन बिना दम तोड़ते लोगों को जिनका शुमार आंकड़ों में भी नहीं है। मुआवज़े की बोटी फिर से उछाली जाएगी, और जनता सब कुछ भूल फिर से मुआवज़े की कतार में खड़ी हो जाएगी और सरकार मुआवज़े के आंकड़ों के प्रबंधन में।
(तोषी ज्योत्स्ना आईटी पेशेवर हैं। हिंदी और अंग्रेजी दोनों में समकालीन मुद्दों पर लिखने में गहरी दिलचस्पी रखती हैं। एक स्तंभकार और पुरस्कार विजेता कहानीकार भी हैं।)