उपराष्ट्रपति के शपथ ग्रहण समारोह का मंच हमेशा से औपचारिकता, परंपरा और गरिमा का प्रतीक रहा है। लेकिन इस बार, मंच पर एक और कहानी भी बुन रही थी—सिलचर की डिज़ाइनर रजेशोरी की बनाई हुई साड़ी, जिसे राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने अपने परिधान के रूप में चुना। यह क्षण सिर्फ एक औपचारिक कार्यक्रम नहीं था, बल्कि यह भी संदेश दे रहा था कि भारत के बुनकरों की कला और परंपरा राष्ट्र की पहचान का अभिन्न हिस्सा है।
सिलचर की गलियों से निकली यह साड़ी राष्ट्रपति भवन तक पहुँचना अपने आप में किसी सपने से कम नहीं था। रजेशोरी ने कहा, “हर धागा हमारी संस्कृति की कहानी कहता है। राष्ट्रपति जी ने इस साड़ी को चुना, यह केवल मेरे लिए ही नहीं बल्कि पूरे बराक घाटी के बुनकरों के लिए सम्मान की बात है।”
यह साड़ी केवल वस्त्र नहीं थी, बल्कि प्रतीकों और परंपराओं की भाषा बोल रही थी। इसमें प्रयुक्त बॉर्डर, रंग और पैटर्न महिलाओं की स्वतंत्रता, सामाजिक समरसता और जीवन के उत्सव का प्रतिनिधित्व करते थे।
साड़ी का डिज़ाइन पारंपरिक बुनाई से प्रेरित था, लेकिन इसे आधुनिक रूप भी दिया गया। ऊपरी किनारे पर लाल धार और निचले किनारे पर हरे रंग की चौड़ी पट्टी, जिस पर त्रिकोणीय आकृतियाँ बनी थीं, इस परिधान को विशिष्ट बनाती थीं। पारंपरिक रूप में इस तरह की साड़ियों में तीन धनुष (थ्री-बो) डिज़ाइन भी मिलती है, जो महिलाओं की स्वतंत्रता की आकांक्षा का प्रतीक माना जाता है। रजेशोरी ने इस परंपरा को नया रूप देकर आज की पीढ़ी के अनुरूप बना दिया।
द्रौपदी मुर्मू हमेशा से भारतीय परिधानों, खासकर हस्तकरघा और हाथ से बुनी साड़ियों को प्राथमिकता देती रही हैं। उनके परिधान न केवल उनकी सादगी और भारतीयता को दर्शाते हैं, बल्कि यह भी संदेश देते हैं कि स्वदेशी बुनाई और वस्त्र उद्योग का सम्मान करना हमारी जिम्मेदारी है। शपथ ग्रहण जैसे ऐतिहासिक अवसर पर सिलचर की साड़ी पहनना केवल फैशन स्टेटमेंट नहीं, बल्कि यह सांस्कृतिक और सामाजिक सरोकारों को जोड़ने का प्रयास था।
बराक घाटी का सिलचर शहर, भले ही दिल्ली या कोलकाता की तरह बड़ा शहरी केंद्र न हो, लेकिन इसकी बुनाई और वस्त्र परंपरा बेहद समृद्ध है। यहाँ की साड़ियाँ अक्सर प्रकृति से प्रेरित डिज़ाइनों से सजाई जाती हैं—फूल-पत्तों के मोटिफ, परंपरागत ज्यामितीय आकृतियाँ और त्योहारों की छवियाँ इनमें प्रमुख हैं।
रजेशोरी ने इन्हीं परंपराओं को जीवित रखते हुए उनमें आधुनिकता का पुट भरा है। वह मानती हैं कि, “परंपरा तभी जीवित रहती है जब वह समय के साथ चलती है। अगर हम अपनी कला को नए रूप नहीं देंगे तो आने वाली पीढ़ियाँ इससे दूर हो जाएंगी।”
जब राष्ट्रपति मुर्मू की तस्वीरें मीडिया में आईं, तो सिलचर के बुनकर समुदाय के बीच उत्साह का माहौल बन गया। स्थानीय कारीगरों ने इसे ऐतिहासिक क्षण बताया। एक वरिष्ठ बुनकर ने कहा, “हमने कभी सोचा भी नहीं था कि हमारी बुनाई राष्ट्रपति भवन तक पहुँचेगी। यह हमारे लिए नया हौसला है।”
इस तरह की पहचान से न केवल रजेशोरी को, बल्कि उन सभी छोटे कारीगरों को भी प्रेरणा मिलती है जो अक्सर गुमनामी में मेहनत करते हैं।
भारत की कहानी उसके कपड़ों और बुनाई में भी झलकती है। चरखा और खादी हमारे स्वतंत्रता संग्राम का प्रतीक रहे हैं। आज भी हस्तकरघा और हथकरघा उद्योग करोड़ों लोगों की आजीविका का आधार हैं। लेकिन मशीनों और तेज फैशन की दुनिया में यह क्षेत्र चुनौतियों से जूझ रहा है।
ऐसे में राष्ट्रपति द्वारा हाथ से बनी साड़ी पहनना केवल व्यक्तिगत चुनाव नहीं, बल्कि हस्तकरघा उद्योग को समर्थन देने का संदेश भी है। यह दर्शाता है कि परंपरा और आधुनिकता साथ-साथ चल सकती हैं।
उपराष्ट्रपति का शपथ ग्रहण समारोह अपने आप में ऐतिहासिक था, लेकिन राष्ट्रपति मुर्मू की साड़ी ने इस इतिहास में संस्कृति का रंग भी जोड़ दिया। यह परिधान सिलचर की मिट्टी, वहाँ के बुनकरों की मेहनत और रजेशोरी की कल्पनाशक्ति का संगम था।
इस साड़ी ने साबित कर दिया कि वस्त्र केवल शरीर ढकने का साधन नहीं, बल्कि वे पहचान, इतिहास और आकांक्षाओं के वाहक भी होते हैं। जब यह साड़ी राष्ट्रपति भवन की रोशनी में चमक रही थी, तब यह पूरे देश को यह संदेश भी दे रही थी कि भारत की असली खूबसूरती उसकी विविध परंपराओं और हस्तकला में बसी है।
रजेशोरी का सपना है कि आने वाले समय में सिलचर और बराक घाटी की बुनाई को राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर नई पहचान मिले। वह कहती हैं, “अगर राष्ट्रपति जी की साड़ी लोगों को हमारे कपड़ों और हमारी कला की ओर आकर्षित करती है, तो यह सबसे बड़ी उपलब्धि होगी।”
उनकी यह आशा अब हकीकत में बदलती दिख रही है। स्थानीय स्तर पर बुनकरों के बीच नई ऊर्जा आई है और कला को संरक्षित करने के लिए युवा भी आगे आ रहे हैं।
राष्ट्रपति मुर्मू का यह परिधान केवल एक औपचारिक चुनाव नहीं था, बल्कि यह पूरे देश को यह याद दिलाने का अवसर था कि भारत की आत्मा उसकी परंपराओं और कला में बसती है। और जब ये परंपराएँ सिलचर जैसे छोटे शहर से निकलकर राष्ट्रपति भवन तक पहुँचती हैं, तो यह केवल बुनकरों की नहीं, बल्कि पूरे देश की जीत होती है।