Thursday, December 19, 2024

चरैवेति चरैवेति…

मेरे घुमक्कड़पन से चिढ़ते हैं मेरे परिवार के सदस्यवर्जनाएँ ढेरों मिलती हैं … पर दुनिया को देख लेने की मेरी इस चाह को कोई वाजिब नहीं समझता। वे इस बात से अनभिज्ञ हैं कि चरंति वसुधां कृत्स्नां वावदूका बहुश्रुताः यानी बुद्धिमानऔर वाक्कुशल व्यक्तिसारी पृथ्वी का भ्रमण करते हैं ! 

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ऐतरेय उपनिषद में कहा गया है कि सतत चलते रहो – चरैवति चरैवति! प्रवाह के बिना सब कुछ बासी, ठहरा हुआ, रोमांच से रिक्त, और अत्यंत नीरस हो जाता है। यात्राओं के बिना जीवन ऐसा ही होता है।

 करोना काल की आमद ने मुझ जैसे असंख्य यायावरों को शारीरिक ही नहीं अपितु मानसिक रूप से भी बांध दिया था । हवाई यात्राएँ स्थगित की जा रही थीं, परिवार वाले घूमंतुओं को समय समय पर वर्जनाएँ दे कर सावधान कर रहे थे, की ख़तरनाक ही नहीं जानलेवा हो सकता है कहीं जाना और हालात ये रह गयी थी की – मियाँ की दौड़ मस्जिद तक – घर से कार्यालय और कार्यालय से घर, कुछ गिने- चुने मित्रों से मुलाक़ातें और सब अंदर .. अंदर ही अंदर देखना, समझना, यही रहा।

 मेरे घुमक्कड़पन से चिढ़ते हैं मेरे परिवार के सदस्य! वर्जनाएँ ढेरों मिलती हैं, जैसे – “अरे भाई , तुम ज़रा कहीं ठहर के आराम भी किया करो , जब देखो जाने – जाने का क्या लगाये रखती हो”। मेरे स्वास्थ्य के प्रति उनकी चिंता, मेरे प्रति उनका प्रेम सब समझती हूँ , पर दुनिया को देख लेने की मेरी इस चाह को कोई वाजिब नहीं समझता। वे इस बात से अनभिज्ञ हैं कि चरंति वसुधां कृत्स्नां वावदूका बहुश्रुताः, यानी बुद्धिमान और वाक्-कुशल व्यक्ति, सारी पृथ्वी का भ्रमण करते हैं ! अब बुद्धिमान ना भी रहूँ पर मुझ जैसे को एकनॉमिक्स के अनगिनत परिप्रेक्ष्य, बचत का गणित प्रस्तुत करने से भी कोई फ़ायदा नहीं होता।मेरा नज़रिया नहीं बदलता ।

हमारे देश में एक आम सोच है की बुढ़ापे में पड़े रहना चाहिये एक जगहतीर्थ यात्रा अगर बच्चों ने ढो के करा दिया तो कृतज्ञ रहोवरना एक कमरा काफ़ी है अंतस् की यात्राओं के लिए  इसलिए भी लगता है की जब तक हाथ – पाँव सलामत हैं घूम लिया जाए , स्मृतियाँ संजो ली जायेंकी कभी अपने कमरे में भी आँखें मूँद के अपनी यात्राओं में शामिल ख़ूबसूरत मक़ामों पर मन से पहुँच तो जायें , खुश तो हो लें की हम ने ऐसे मंज़र देखे तो थे !

कहीं जाने के पूर्व, ना जाने संबंधित अनावश्यक तर्क, मैं कान में तेल डाले अपने अंदर के त्रिया चरित्र को जागृत करने में लग जाती हूँ कि किसी तरह जाने के लिए मना लूँ – प्रेम , क्रोध , अश्रु अथवा हठ से ! सुभाषित मंजरी में कहा गया है –

यस्तु संचरते देशान् यस्तु सेवेत पण्डितान् ।तस्य विस्तारिता बुद्धिस्तैलबिन्दुरिवाम्भसि 

अर्थात् अलग अलग देशों की यात्रा करने वाले तथा विद्वत जनों के साथ संबंध बनाए रखने वाले व्यक्ति की बुद्धि उसी तरह बढ़ती है, जैसे तेल की एक बूंद पानी में फैलती है। फिर यात्राओं के लिए मान जाने से सिर्फ़ मेरी नहीं, परिवारजनों की भी तो बुद्धि में बढ़ोतरी हो रही है , भले कोई माने या ना माने !

 मोबाइल और नेट्फ़्लिक्स, सोशल मीडिया आदि से हटकर कितना कुछ है जो यात्राएँ देतीं हैं हमें । दृष्टिकोण में विस्तार, अलग संस्कृतियों की समझ , अपनी संस्कृति से और भी प्यार बढ़ाती हैं यात्रायें ।पंचतंत्र में कहा गया है – जो विभिन्न प्रकार के गुणों को ग्रहण करना चाहते हैं वे पृथ्वी का भ्रमण करते हैं –

पर्यटन् पृथिवीं सर्वांगुणान्वेषणतत्परः। कुछ यात्रायें आवश्यक होती हैं और कुछ अनावश्यक भी परंतु मैं यह मानती हूँ की किसी भी परिस्थितिवश कोई रास्ता सामने आए तो यात्रा होनी ही चाहिए ।यस्मिन्प्रचीर्णे  पुनश्चरन्ति वै श्रेष्ठो गच्छत यत्र कामः महाभारत के अश्वमेध पर्व में कहा गया है कि जो व्यक्ति उनके समक्ष आने वाले हर प्रकार के मार्ग पर चलने के लिए तत्पर हैं, वे श्रेष्ठ होते हैं तथा उनको अभीष्ट प्राप्त होता है।

 योजनानां सहस्त्रं तु शनैर्गच्छेत् पिपीलिका– जब चींटी इतनी छोटी सी होने के बावजूद धीमे धीमे चल कर भी सहस्त्रों योजन की यात्रा सम्पन्न कर सकती हैं तो हम क्यों नहीं? अच्छे लगते हैं मुझे यूरोपीय विदेशी बुज़ुर्ग जोड़े जो निकल पड़ते हैं थोड़े से सामान के साथ , दुनिया देखने, स्मृतियाँ संजोने। हमारे देश में एक आम सोच है की बुढ़ापे में पड़े रहना चाहिये एक जगह , तीर्थ यात्रा अगर बच्चों ने ढो के करा दिया तो कृतज्ञ रहो, वरना एक कमरा काफ़ी है अंतस् की यात्राओं के लिए । इसलिए भी लगता है की जब तक हाथ – पाँव सलामत हैं घूम लिया जाए , स्मृतियाँ संजो ली जायें, की कभी अपने कमरे में भी आँखें मूँद के अपनी यात्राओं में शामिल ख़ूबसूरत मक़ामों पर मन से पहुँच तो जायें , खुश तो हो लें की हम ने ऐसे मंज़र देखे तो थे !

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