योग के आयाम: मनसा— वाचा— कर्मणा

” बीज की पीड़ा भला तुम क्या  जानो

देता जनम जो खुद को मिटा कर

देना ही जीवन है देकर तो देखो

लेने की चाहत न फिर कर सकोगे|”

किसी नकारात्मक विचार की उत्पत्ति पहले मन में होती है, फिर वाणी में उतरती है और अंत में कर्म के रूप में अभिव्यक्त होती है|

मनसा— वाचा— कर्मणा

यहीं पर मनोनिग्रह की भूमिका शुरू होती है| व्यक्ति को सहजतापूर्वक, विवेकपूर्ण सोच के द्वारा अपने विचार को अपनी परिस्थिति सुधारने के लिए, अपने व्यवहार मेंचेतनता का विस्तार करना चाहिए| आत्म-विश्लेषण, पीछे की घटनाओं का अवलोकन करते हुए उस नकारात्मक विचार के कारण को अपने जीवन से निकालने काप्रयास सकारात्मकता  के साथ करना चाहिए ताकि हम अपने जीवन को एक नई और सही दिशा प्रदान करने में समर्थ हो सकें| और यह हम कर सकते हैं—– अपनीसंकल्प-शक्ति को दृढ़ बनाकर— वर्ना गाड़ी स्टेशन छोड़कर चली जाएगी और सिवा दुःख, घृणा, अवसाद, परेशानी के कुछ हासिल नहीं होगा|

आत्म संयम का धरातल यहीं पर बनना शुरू होता है|

— सं. योगप्रिया (मीना लाल)

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