आदमी की परिस्थितियों के आगे की विवशता को इससे बेहतर शब्दों का जामा पहनाना किसी मनुष्य के बस का तो नहीं है, कम से कम हिंदी -उर्दू में तो नहीं ही है। कितनी सरलता से गालिब कह जाते हैं कि जो होना होता है , वही होता है बाकी सब किस्से और फसाने हैं
PRAVASISAMWAD.COM
गालिब को पढ़ते हुए मैंने कई बार यह महसूस किया है कि बेबसी के उनके अशआर, जो उपर-उपर से पढ़ने पर होठों पर मुस्कान का सबब बनते हैं, असल में मानवीय संवेदनाओं की अद्भुत अभिव्यक्ति हैं। दर्द का यदि कोई शरीर होता तो वह गालिब के अशआर जैसा ही होता।
निकलना ख़ुल्द से आदम का सुनते आए हैं लेकिन
बहुत बे-आबरू हो कर तिरे कूचे से हम निकले
अब इससे ज्यादा बेआबरू होकर भला कौन निकल सकता है। कभी न कभी जिंदगी हर किसी को किसी न किसी कूचे से बेआबरू कर के निकलवाती ही है। सेल्स कॉल से लेकर इंटरव्यू तक, शादी से लेकर सौदे तक, जिंदगी में हम कई बार नकारे और दुत्कारे जाते हैं। स्कूल का टॉपर जब IAS की इंटरव्यू से नाकाम निकाला जाता है तो उसे सांत्वना खोजने आदम के पास जाना पड़ता है। गालिब को पढ़ने से रास्ते का पता सहज में मिल जाता है।अब ये अशआर देखें :
घर हमारा जो न रोते भी तो वीराँ होता
बहर गर बहर न होता तो बयाबाँ होता
तंगी-ए-दिल का गिला क्या ये वो काफ़िर-दिल है
कि अगर तंग न होता तो परेशाँ होता
आदमी की परिस्थितियों के आगे की विवशता को इससे बेहतर शब्दों का जामा पहनाना किसी मनुष्य के बस का तो नहीं है, कम से कम हिंदी -उर्दू में तो नहीं ही है। कितनी सरलता से गालिब कह जाते हैं कि जो होना होता है , वही होता है बाकी सब किस्से और फसाने हैं।
दीवान -ए-गालिब में आने के बाद यहाँ से निकलने का मन नहीं होता लेकिन गम -ए-रोजगार इसकी इजाजत नहीं देता और रोटी के आगे फिर शराब के अलावा किसी का बस नहीं चलता और बिहार में शराब पीना वैध नहीं है। सो अभी भूख प्राथमिकताओं में सबसे ऊपर है और भूख में चाँद भी रोटी जैसा दिखता है।
ग़ालिब को उनकी पुण्यतिथि पर मेरी विनम्र श्रद्धांजलि।
************************************************************************
Readers