…मेरी समस्या यह नहीं कि मैं नया स्वीकार नहीं कर पाता, बल्कि मेरे साथ सबसे बड़ी चुनौती
यह है कि मूलभूत बातों को छोड़ मेरी विचारधारा पर उस बात का अत्यधिक प्रभाव जिसका मैं
तत्काल अनुभव कर रहा होता हूँ
आदमी को चाहिए कि वह हर रोज कुछ नया सीखे, तभी वह हर बीते कल की अपेक्षा आज थोड़ा बेहतर हो सकता है। नया सीखने के लिए कई बार आपको यह मानने के लिए तैयार रहना होगा कि आप जो जानते हैं वह गलत भी हो सकता है। यह मानने के लिए मुक्त अंतःकरण की आवश्यकता होती है चूँकि हमारा पूर्वाग्रह और हमारा अहम दोनों ही इसका विरोध करते हैं। बहुत लोगों को इसलिए नया कुछ स्वीकार करने में समस्या आती है। मेरी समस्या यह नहींकि मैं नया स्वीकार नहीं कर पाता, बल्कि मेरे साथ सबसे बड़ी चुनौती यह है कि मूलभूत बातों को छोड़ मेरी विचारधारा पर उस बात का अत्यधिक प्रभाव जिसका मैं तत्काल अनुभव कर रहा होता हूँ। उदाहरण के लिए जब मैं कबीर को पढ़ रहा होता हूँ तो फिर मैं फकीराना मस्ती का कायल होता हूँ, जब ग़ालिब को पढ़ता हूँ तो मैं उधार की शराब पीने लगता हूँ, जब दुष्यंत कुमार को पढ़ता हूँ तो मैं सूरत बदलने की कोशिश करने लगता हूँ, जब दिनकर को पढ़ता हूँ तोअपने तरफ बढ़ रहे हाथ को विच्छिन्न कर देना चाहता हूँ।
यह कच्ची मिट्टी का सा मेरा व्यक्तित्व मुझे कई बार बड़ी कठिनाइयों में फँसा चुका है। बचपन से ही पढ़ने से घोर चिढ़ के बावजूद सुभद्रा कुमारी चौहान की कविता ‘झाँसी की रानी’ मुझे छठी कक्षा में जबानी याद हो गई थी। हमारेस्कूल में सुबह प्रार्थना के बाद कविता सुनाने की प्रथा थी जिसमें मैंने इस कविता का ही सस्वर पाठ किया था। यह मंच पर कविता पाठ का मेरा पहला अनुभव था और इस पाठ से मुझे चिरप्रतीक्षित ख्याति मिली। इसका दुष्परिणामयह रहा कि वीर रस मेरी वक्तृता का स्थाई भाव हो गया। यह भाव मुझपर किस प्रकार हावी रहा इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उसके बाद मैंने नीरज जी का श्रृंगार रस का एक पूरा संग्रह उसी मंच से वीर रस मेंसुना डाला। यहाँ तक तो मामला फिर भी ठीक था पर उसके बाद धीरे-धीरे मैं इसी लहज़े में बात करने लगा, बड़ो से भी।
ऐसा ही चल रहा है और चलता रहा है और आज तक मैंने जो भी थोड़ा-बहुत कुछ पढ़ा है उसके प्रभाव में बहुत दिनों तक बहता रहा हूँ। कभी मैं सपने में Requiem in Raaga Janki की जानकीबाई के गाने सुनता हूँ तो कभी गौहरजान का नृत्य देखता हूँ। कभी-कभी अपने दिवास्वप्नों में मैं वाज़िद अली शाह के पास 19वीं सदी के कलकत्ते पहुँच जाता हूँ और उनको सांत्वना देता हूँ कि जाने दीजिए जो हुआ सो हुआ, अंग्रेज ने लखनऊ के तख्त से आपको भले हीतब उतार दिया हो, पर उसके मिज़ाज़ पर आपका असर आज भी है।
…अब इसको आप क्या कहेंगे कि एक दिन एक गरीब-अनपढ़ महिला के साथ बैंक में हो रहे दुर्व्यवहार से मैं आंदोलित हो उठा और मेरा मन किया कि इसके विरोध में धरना दे डालूँ।हालांकि कुछ देर तक आलस के कारण कुछ नहीं बोलने के बाद मुझे याद आया कि इस शाखा का शाखा प्रबंधक तो मैं ही हूँ और फिर मैंने बिना किसी तमाशे के उस वृद्धा का काम करवाया
इसी प्रवाह में मैं कभी घनघोर पूंजीवादी होता हूँ, तो कभी पक्का वामपंथी। अब नक्सलबाड़ी जाऊँगा तो वहाँ से आने के बाद अरुंधति का निबंध-संग्रह “Walking with Comrades” ही पढूंगा। फिर कुछ दिनों तक मन ही मन सशस्त्रविरोध का समर्थन भी स्वाभाविक ही है।
इसमें मेरी विलक्षणता यह है कि मैं नक्सलियों के शोषण से लेकर नाकाम आशिकों की पीड़ा तक सबसे सहानुभूति और समानुभूति रख लेता हूँ। यह ऊपर से तो संवेदनशीलता जैसा कुछ निर्दोष से भाव जान पड़ता है लेकिन है यहनाटकीयता सा कुछ ।
अब इसको आप क्या कहेंगे कि एक दिन एक गरीब-अनपढ़ महिला के साथ बैंक में हो रहे दुर्व्यवहार से मैं आंदोलित हो उठा और मेरा मन किया कि इसके विरोध में धरना दे डालूँ। हालांकि कुछ देर तक आलस के कारण कुछ नहींबोलने के बाद मुझे याद आया कि इस शाखा का शाखा प्रबंधक तो मैं ही हूँ और फिर मैंने बिना किसी तमाशे के उस वृद्धा का काम करवाया।
इसी क्रम में एक बार अपने वरिष्ठ अधिकारियों के साथ बैठक से पहले वाली रात मैंने कुलदीप नैयर की किताब “Without Fear” पढ़ी थी। भगत सिंह के जीवन से प्रभावित इस किताब को पढ़ने के बाद मुझे वे सभी लोग मुझे गुलामबनाने वाले अंग्रेज ही लग रहे थे। वो तो बम की अनुपलब्धता के कारण मैं आज भी जेल से बाहर हूँ, वरना कौन जाने क्या होता?☺️
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