Sunday, December 22, 2024

दास्तान-ए-इश्क़ भाग #8

मैं इश्क़ के मैदान में हार गया और इस हार के साथ ही विवाह कर के इस मैदान से हट गया, तो बस दास्तान-ए-इश्क़ यहीं ख़त्म हुआ और इसके साथ ख़त्म हुआ ज़िन्दगी का एक खुशनुमा पहलू 

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कूचा-ए-जाना से निकाले लोग अक्सर मयकदे में जाते हैं l मैं मयकदे बहुत पहले आ गया था और हर तर्क-ए-तआल्लुक़ के बाद शराब थोड़ी और बढ़ जाती l अचानक मुझे लगा कि मैं अब खाना नहींखा रहा था, बस शराब ही पी रहा था l “कू-ए-यार(महबूब की गली) से निकले तो सू-ए-दार चले (मृत्यु की तरफ) ” का भय हो गया l यार-दोस्त डॉक्टर के पास ले गए, डॉक्टर ने लम्बा-चौड़ा चेकअपकिया और कहा कि यकृत (liver) की स्थिति ठीक नहीं और शराब, माँसाहार, तला-भुना खाने आदि से मना कर दिया l ज़िन्दगी बेमज़ा हो गई थी, शेर-ओ-सुखन के लिए भी जो मिजाज़ चाहिएउसके लिए इश्क़ और शराब दोनों ज़रूरी हैं l महबूब की  बेरुखी में नशा भी है और मज़ा भी, लेकिन शराब से तौबा वास्तव में कुफ़्र-ए-तौबा ही है l अकबर इलाहाबादी का यह मत्ला और एक शेर मेरीहालत को मुझसे बेहतर कहते हैंl

 

दुनिया में हूँ दुनिया का तलबगार नहीं हूँ

बाज़ार से गुज़रा हूँ ख़रीदार नहीं हूँ

 

ज़िंदा हूँ मगर ज़ीस्त की लज़्ज़त नहीं बाक़ी

हर-चंद कि हूँ होश में हुश्यार नहीं हूँ

 

छह महीने बीत चुके थे शराब को देखे हुए या किसी प्यार किये हुए l उम्र-ए-दराज़ में या फ़ुर्सत-ए-गुनाह को मिलने चार ही दिन हैं यह मैं जानता हूँ और इसलिए ये दिन पपीते और उबली सब्जियाँखाकर बर्बाद करना नहीं चाहता था, पर डॉक्टर इससे अधिक छूट देने को तैयार न थे l बात घर में भी पता चली पर मैंने शराब को इस इल्ज़ाम से ‘खुदा भी पूछेगा तो मुकर जाएँगे’ वाले अंदाज में बचालिया और यकृत में मची गड़बड़ी का सारा इल्ज़ाम ‘बलि के बकरे’ पर डाल दिया l घरवाले खासकर पिताजी सब समझ रहे थे लेकिन उन्होंने मेरे झूठ पर कुछ बेखुद देहलवी के इस शेर

 

जादू है या तिलिस्म तुम्हारी ज़बान में

तुम झूट कह रहे थे मुझे ए’तिबार था

 

की तरह ही ऐतबार किया l विवाह को हमारा देश जवानी का इलाज मानता है और अब लोगों को लगा कि मेरी जवानी का भी इलाज़ हो जाना चाहिए l विवाह के दो रास्ते हैं और मेरे पास अब एकही विकल्प शेष था ‘अरेंज्ड मैरिज’, हालाँकि मनुस्मृति में आठ प्रकार के विवाहों का वर्णन मिलता है लेकिन वे सब वर्तमान क़ानूनी परिदृश्य में लुप्तप्राय हो गए हैं l विवाह को वैसे तो हिन्दू रीति में कईजन्मों का साथ माना गया है, लेकिन विवाह पर ही लगभग सारी  प्रेम-कहानियाँ अपनी अंतिम गति पा लेती हैं तो फिर यहाँ तो यूँ भी प्रेम न था, दुर्गति ही एकमात्र गति थी l विवाहोपरांत मुझे फिर सेस्कूल में पढ़ी सुभद्रा कुमारी चौहान की वो पंक्तियाँ याद आईं, जिसमें उन्होंने लक्ष्मबाई की मृत्यु की बात कही  थी  :

 

इनकी गाथा छोड़ चले हम, झाँसी के मैदानों में

जहाँ खड़ी थी लक्ष्मीबाई मर्द बनी मर्दानों में l

 

मैं इश्क़ के मैदान में हार गया और इस हार के साथ ही विवाह कर के इस मैदान से हट गया, तो बस दास्तान-ए-इश्क़ यहीं ख़त्म हुआ और इसके साथ ख़त्म हुआ ज़िन्दगी का एक खुशनुमा पहलू l

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