प्रसिद्ध ढाकी गोकुल चंद्र दास, जो इस वर्ष के पद्मश्री पुरस्कार के विजेताओं में से एक हैं, इस सम्मान को भारतीय पारंपरिक वाद्य यंत्र — ढाक — के प्रति एक स्वीकृति के रूप में देखते हैं।
बंगाल की संस्कृति और उत्सवों में ढाक की गूंज सदियों से रची-बसी है।
वे पहले ऐसे “ढाकी” हैं जिन्हें पद्म पुरस्कार मिला है। उन्होंने न केवल इस सम्मान को अपने गुरु, तबला उस्ताद तनमय बोस को समर्पित किया, बल्कि महिलाओं को ढाक बजाने के लिए प्रेरित कर इस परंपरा में नई राह बनाई।
उत्तर 24 परगना जिले के मस्लानदापुर के विधानपल्ली में ढाक की ताल अब एक नए अर्थ के साथ गूंजती है — एक ऐसी धुन जो परंपरा के साथ-साथ परिवर्तन का भी उत्सव मनाती है।
वह ताल जो प्रायः दुर्गा पूजा के दौरान सुनाई देती थी, अब दर्जनों महिला ढाकियों की एकजुट ध्वनि में गुरु पद्मश्री गोकुल चंद्र दास को सम्मान देने के रूप में गूंजी उस कलाकार को जिसने न केवल इस प्राचीन कला को जीवित रखा, बल्कि इसे पुनर्परिभाषित करते हुए महिलाओं को एक पुरुष-प्रधान परंपरा में अपनी जगह दिलाई।
कई दशकों तक, ढाक एक बड़ा पारंपरिक ढोल पुरुषों का वाद्य माना जाता था।
बंगाल की संस्कृति में यह गहराई से जुड़ा रहा। लेकिन लगभग साठ वर्ष के हो चुके गोकुल दास ने समय से पहले बदलाव की बयार को पहचान लिया था।
उन्होंने संगीत जगत के दिग्गजों जैसे पंडित रवि शंकर और उस्ताद ज़ाकिर हुसैन के साथ काम किया है, लेकिन उन्हें विशिष्ट बनाता है उनका लैंगिक समानता के प्रति समर्पण।
महिलाओं को प्रशिक्षण देने की उनकी यात्रा एक अप्रत्याशित मोड़ से शुरू हुई।
जब वे उस्ताद ज़ाकिर हुसैन के साथ विदेश यात्रा पर थे, तब अमेरिका के एक वाद्य यंत्र स्टोर में उन्होंने एक महिला को सैक्सोफोन, बांसुरी और क्लैरिनेट जैसे यंत्र बड़ी कुशलता से बजाते देखा।

यही दृश्य उनके मन में एक प्रश्न जगाता है, “अगर महिलाएँ इतने जटिल यंत्र सीख सकती हैं, तो ढाक क्यों नहीं?”
घर लौटकर उन्होंने ठान लिया कि अपने गाँव की महिलाओं को ढाक सिखाएँगे चाहे समाज कुछ भी कहे।
लेकिन शुरुआत आसान नहीं थी।उनके छोटे बेटे नेपाल के अनुसार, उनके पिता के प्रयासों पर लोगों ने संदेह और उपहास किया।महिलाएँ भी झिझकती थीं।तब आईं उमा, नेपाल की भाभी और दास की पहली महिला शिष्या।
उमा कहती हैं,
“शुरुआत बहुत कठिन थी। लोग हँसते थे खासकर महिलाएँ। लेकिन जब हमने सार्वजनिक कार्यक्रमों में प्रदर्शन किया और उससे आमदनी भी होने लगी, तो सबकी सोच बदल गई। अब आसपास के गाँवों की महिलाएँ भी हमारे समूह से जुड़ रही हैं।”
जो आंदोलन कुछ महिलाओं के साहस से शुरू हुआ था, वह अब एक सशक्त सांस्कृतिक क्रांति बन गया है।
‘मस्लानदापुर मोटीलाल ढाकी डॉट कॉम’, दास का प्रशिक्षण संस्थान, अब 150 से अधिक महिला ढाकियों का घर है जो देश-विदेश में प्रदर्शन करती हैं यह साबित करते हुए कि जुनून और धैर्य सबसे गहरे पूर्वाग्रहों को भी मिटा सकते हैं।
रुम्पा सरकार, जो सात वर्षों से दास के अधीन प्रशिक्षण ले रही हैं, कहती हैं,
“ढाक मेरे लिए केवल एक वाद्य नहीं रहा, यह मेरी आत्मनिर्भरता का माध्यम बन गया। मैं बारासात से मस्लानदापुर प्रशिक्षण के लिए आती हूँ, पूरे भारत में प्रदर्शन किया है, कोलकाता और मुंबई की फिल्मों में भी काम किया है। सबसे बड़ी बात अब मैं अपने बच्चे की पढ़ाई खुद करा सकती हूँ।”
अब तक उन्होंने लगभग 400 महिलाओं को ढाक बजाना सिखाया है।
उनकी टीम में 200 पुरुष और 90 महिलाएँ हैं।
उनके गुरु तनमय बोस कहते हैं,
“गोकुल ने अकेले दम पर ढाक को पूजा पंडालों से उठाकर शास्त्रीय संगीत के मंचों तक पहुँचा दिया।”
अपनी उपलब्धियों के बावजूद, गोकुल दास का मिशन अभी पूरा नहीं हुआ है।
उनका सपना है एक ‘ढाक अकादमी’ की स्थापना करना जहाँ अलग-अलग क्षेत्रों के ढाक वादक अपने घरानों की विविधता साझा कर सकें और बंगाल की ताल परंपरा को सहेज सकें।
वे कहते हैं, “केवल एक अकादमी ही सुनिश्चित कर सकती है कि ढाक और उसकी सांस्कृतिक महत्ता इतिहास में विलीन न हो।”
वे ढाक बजाने की तकनीकों, विविधताओं और सौंदर्यशास्त्र पर एक पुस्तक भी लिख रहे हैं जो अपनी तरह की पहली होगी।उनका मानना है कि अगर ढाक को पश्चिमी वाद्यों के साथ आधुनिक संगीत में समाहित किया जाए, तो यह आने वाली पीढ़ियों के लिए भी प्रासंगिक बनी रह सकती है।
जब दास अपने गाँव लौटते हैं, तो उनके शिष्य ढाकों की एक भव्य रैली से उनका स्वागत करने की योजना बनाते हैं यह उस व्यक्ति को श्रद्धांजलि होगी जिसने परंपरा को चुनौती दी और परिवर्तन की नई धुन रची।
हर ढोलक की गूंज के साथ, गोकुल चंद्र दास ने न केवल एक लुप्त होती कला को जीवित रखा है, बल्कि उसे नई जीवनधारा, नई लय और सबसे बढ़कर एक नई आवाज़ दी है।




