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सच का लावा उगलती हैं, धूमिल की कविताएँ

धूमिल आज़ादी के पहले और बाद का ज़ख़्म खाया दिलो-जिगर रखते थे , जीवन मूल्यों और सामाजिक संरचना , अवसरवादिता और ज़िंदगी से जूझते मन – प्राण की एकदम नंगी तस्वीर प्रस्तुत करते रहे ,अपने इतने अल्प-काल के जीवन में। PRAVASISAMWAD.COM सुदामा पांडेय धूमिल को पढ़ती हूँ

सहरा …

‘नक़्श- ए – फ़रियादी है किसकी शोख़ी- ए- तहरीर का ….” मेरे कैमरा लेंस की ज़िद होती है  …रेत पर
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