Sunday, November 17, 2024

हालावाद के प्रणेता डॉ० हरिवंश राय ‘बच्चन’

 

शांत सकी हो अब तक, साकी, पीकर किस उर की ज्वाला,
‘और, और’ की रटन लगाता जाता हर पीनेवाला,
कितनी इच्छाएँ हर जानेवाला छोड़ यहाँ जाता!
कितने अरमानों की बनकर कब्र खड़ी है मधुशाला।।

आज हालावाद के प्रणेता और इसके एक मात्र प्रकाशस्तंभ डॉ० हरिवंश राय ‘बच्चन’ की जयंती है। डॉ० बच्चन ने हालाँकि लिखा बहुत है लेकिन उनको विश्व मधुशाला गानेवाला कवि ही मानता है। मधुशाला मेरी समझ में अपने आप में सम्पूर्ण, एक व्यापक जीवन दर्शन है और कई बार हाला अपने शाब्दिक अर्थ की परिसीमा को लाँघकर लाक्षणिक अर्थ ग्रहण कर लेती है। कई बार वह विशुद्ध हाला ही रहती है, लोग चाहे उसकी जो भी व्याख्या करें।

जब डॉ० बच्चन ने मधुशाला रची थी तब से लेकर अब तक नैतिकता-वादी हाला पीने की भर्त्सना करते रहे हैं, इसको पाप मानते रहे हैं। हालाँकि मदिरा पीने को अच्छा नहीं कहा जा सकता, फिर भी भारत जैसी प्राचीन सभ्यता के लिए किसी भी वस्तु को इतना भी बुरा और त्याज्य मानना जिसकी बात भी न की जाए इसके अपने मूल संस्कार के विरुद्ध ही होगा। बच्चन जी ने मधुघट-प्याला-मधुशाला को हमारे विमर्श में ला दिया और इसके लिए हिंदी साहित्य सदैव उनका आभारी रहेगा।

ओशो ने शराब के प्रति जन आसक्ति की व्याख्या करते हुए कहा था कि मनुष्य मूल प्रकृति से पशु होता है और उसके सामने आदर्श होता है देवता होने का। वह बराबर इन दोनों परस्पर विपरीत चरमों के बीच यात्रा में रहता है। यात्रा हमेशा ही परिवर्तन धर्मी होती है और परिवर्तन हरदम ही पीड़ादायक। दो ही मंज़िल हैं, पूर्ण-पशुता और पूर्ण देवत्व। शराब पूर्ण पशु की ओर की हमारी यात्रा में सहयोगी होती है, पूर्व पशु होने की क्रिया में उत्प्रेरक का काम करती है। शराब हमें नैतिकता के उस स्तर पर ले जाती है, जिस पर हम वास्तव में होते हैं। मदिरापान हमें कुछ पलों के लिए ही सही हमें हमारे पराधीनता बोध से स्वतंत्र करती है। बच्चन जी ने मधुशाला के कई छन्दों में इसी स्वतंत्रता की बात की है :

धर्मग्रंथ सब जला चुकी है जिसके अंतर की ज्वाला‚
मंदिर‚ मस्जिद‚ गिरजे सबको तोड़ चला जो मतवाला‚
पंडित‚ मोमिन‚ पाादरियों के फंदे को जो काट चुका‚
कर सकती है आज उसी का स्वागत मेरी मधुशाला।

मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु, जिसे वह मित्र समझता है वह है उसकी बुद्धि। सुख बोध इसी से आना है और यह उसे आने नहीं देता। उसके लक्ष्य और मानक सदा बदलते हैं। यह पा लूँ, वह भी पा लूँ। प्रेमिका मिलती है तो उसे पत्नी बनाना चाहता है, फिर जब वह पत्नी हो जाती है तब एक नई प्रेमिका चाहता है। मृगमारीचिकाओं के पीछे भागते रहने की हमारी प्रकृति की अभिव्यक्ति मधुशाला के इस छंद में बड़े सीधे और प्रभावी तरीके से होती है:

शांत सकी हो अब तक, साकी, पीकर किस उर की ज्वाला,
‘और, और’ की रटन लगाता जाता हर पीनेवाला,
कितनी इच्छाएँ हर जानेवाला छोड़ यहाँ जाता!
कितने अरमानों की बनकर कब्र खड़ी है मधुशाला।।

वैसे तो मधुशाला का हर छंद अपने आप में सम्पूर्ण कविता है और सभी के सभी छन्द काव्यात्मक्ता और दर्शन के स्तर पर बेजोड़ हैं सो उसकी कितनी बात की जाए।

डॉ० बच्चन मात्र मधुशाला ही नहीं थे। उनकी अन्य कविताएँ, उनके संस्मरण, उनके अनुवाद, उनके लेख सब के सब जबरदस्त थे। उनका काव्यात्मक लय उनके गद्य में भी दिखता है और शेक्सपियर के नाटकों के उनके अनुवाद में भी। डॉ० बच्चन के लेखों से यह भी पता चलता है कि वे मात्र लेखक न थे, एक बेजोड़ और समझदार अध्येता भी थे। उनकी जयंती पर उनको मेरा नमन।

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