अमृता प्रीतम की 102वीं जयंती: गंगा से वोदका तक की प्यास का सफ़र और अमृता प्रीतम

अपनी पीड़ा और ज़िंदगी की सच्चाइयों को अमृता जी ने अपने लेखन में निर्भीक हो कर दर्शाया। निर्भीकता कमला दासकी आत्मकथा में भी है परंतु अमृता जी ने अपनी आत्मकथा उनकी तरह समाज के सवालों से डर कर मृत्यु के पूर्व नहीं लिखा।सवालिया नज़रों के बीच से बेख़ौफ़ गुज़रने में उन्हें कोई भय नहीं था

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अमृता प्रीतम की लेखनी विश्व भर के साहित्य में अमृत की बूँद की तरह है, उनकी कृतियाँ इंसानियत से मोहब्बत का बहुत ख़ूबसूरत पैग़ाम हैं, जो बेवजह पनपती नफ़रतों और मतभेदों को मिटाने की ताक़त रखती हैं।३६ भाषाओं में उनके विचारों काउजाला फैला है और जिस किसी को उनकी किसी रचना की एक किरण भी छू गयी, उसे अमृता से मोहब्बत होना लाज़िम है।उनकी शख़्सियत को भला पृष्ठों में दर्ज़ करना मुमकिन है क्या?

अमृता जी की लेखनी पर सोचो तो उनका जीवन, उसमें घटित होती घटनाएँ ,उनके अंतस , चेतन – अचेतन मन की यात्राएँ , उनके इश्क़ , फ़लसफ़े , उनके ख़्वाब और उनकी हक़ीक़तें , उनकी साफ़गोई और बेबाक़ी सब तो एक सूत्र में बंधे हैं – किसको छोड़ा जा सकता है? अमृता स्वयं में इतनी धनी थीं कि उन्होंने अपनी वसीयत में लिखा – मेरे सपने उन स्त्रियों को दे देना जो रसोई से बेडरूम के बीच सालों पहले भूल चुकी हैं की सपने देखना क्या होता है , ओल्ड एज होम में रहने वाले उन बुजुर्गों को मेरी हँसी दे देना , जिनके बच्चे दुनिया की चकाचौंध में उन्हें भूल गए हैं..

वर्षा ऋतु में जब देवता सोए होते हैं तब अमृता प्रीतम ने जन्म लिया और इसीलिए वो अपनी लेखनी से ताउम्र सोए हुए देवताओं को जगाने के लिए लिखती रहीं … इंसान के अंदर के देवता को जगाने के लिए भी ! उन्होंने वारिस शाह को अपनी क़ब्र से जागने को कहा था जब भारत दो हिस्सों में बंट रहा था और लोग अपने कलेजे के आधे टुकड़ों के साथ इस पार या उस पार जाने की दोधारी तलवारों पर से गुजर रहे थे .. अमृता जी की वो कविता आज भी वारिस शाह की मज़ार पर उर्स के समय गायी जाती है।लाहौर से दिल्ली के सफ़र में लोग छूटे , शहर छूटे पर उनके लेखन के प्रति लोगों का प्यार नहीं छूटा।

“सुनहेड़े “ से लेकर ओशो के चिंतन की यात्रा को उनकी ये पंक्तियाँ गागर में सागर की तरह ही बयान करती हैं –

जब किसी के आने से काया का अंग अंग खिलने लगे तो उस आने वाले का नाम कहानीकार

जब किसी के आने से काया की साँस बौराने लगे तो वो कवि

जब किसी के आने से काया के प्राण दीपक से जलने लगें तो वो ऋषि

जब किसी के आने से काया की आँखों में प्रेम और प्रार्थना के आँसू आ जाएँ तो वो ओशो …

 

अमृता जी को नारीवाद की संकीर्णता में नहीं बांधा जा सकता ।अर्धनारीश्वर की संकल्पना में उनका विश्वास था , जहां स्त्री और पुरुष एक दूसरे के पूरक होते हैं , स्त्री किसी दर्जे में पुरुष से कम नहींस्वतंत्रता चाहे ख़यालों की हो अथवा रिश्तों की , ये उसका भी हक़ है

 

मनोवैज्ञानिक , आध्यात्मिक , ऐतिहासिक , कलात्मक और भी तमाम पहलुओं पर आपकी नज़र जाती है जब आप अमृता को पढ़ते हैं ।अमृता जी ने ज़िंदगी के दर्द क़िस्सों , उपन्यासों और कविताओं के हवाले कर ,खुद को थोड़ा ख़ाली किया फिर अपने हृदय को इश्क़ के मीठे पानी से भरने दिया, जिसका स्रोत ख़ुद उनके अंदर की प्यास थी। इश्क़ की एक रूपहली दास्ताँ बन गयीं अमृता। उनके इश्क़ का दायरा बहुत बड़ा था – अपनी सच्चाइयों से इश्क़ , इंसानियत से इश्क़ , सब मज़हबों से इश्क़और इस सब के बीच साहिर , सज्जाद और इमरोज़ से इश्क़ उनकी शिराओं में रक्त बन कर प्रवाहित होता रहा। नेपाल के प्रसिद्ध साहित्यकार धूसवाँ सायमी ने शायद इसी लिए कहा था – अमृता को पढ़ कर हिंदुस्तान से प्यार हो जाता है।

जितनी भाषाओं में उनकी लेखनी का तर्जुमा हुआ वहाँ की स्त्रियों का अपरिमित स्नेह उन्हें मिलता रहा। उज़बेकिस्तान की ज़ुल्फ़िया खानम ने प्यार से उनके नाम तर्जुमा कर के उन्हें उल्मस ख़ानम किया , कहीं किसी देश की कवियित्री ने अपने दुपट्टे उनसे बदले जैसे दो बहनें आपस में बदलती हैं। अमेरिका में Ohio के गवर्नर की पत्नी ने अमृता से कहा – तुमने जैसा चाहा वैसा जी लिया! भारत की पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने अमृता जी को एक पत्र में लिखा था कि रसीदी टिकट में स्वयं के विषय में उनकी अपनी अभिव्यक्ति तो थी ही पर कुछ ऐसा भी था जो सार्वभौमिक था।

अपनी पीड़ा और ज़िंदगी की सच्चाइयों को अमृता जी ने अपने लेखन में निर्भीक हो कर दर्शाया। निर्भीकता कमला दास की आत्मकथा में भी है परंतु अमृता जी ने अपनी आत्मकथा उनकी तरह समाज के सवालों से डर कर मृत्यु के पूर्व नहीं लिखा।सवालिया नज़रों के बीच से बेख़ौफ़ गुज़रने में उन्हें कोई भय नहीं था।

अमृता जी को नारीवाद की संकीर्णता में नहीं बांधा जा सकता ।अर्धनारीश्वर की संकल्पना में उनका विश्वास था , जहां स्त्री और पुरुष एक दूसरे के पूरक होते हैं , स्त्री किसी दर्जे में पुरुष से कम नहीं – स्वतंत्रता चाहे ख़यालों की हो अथवा रिश्तों की , ये उसका भी हक़ है।

इश्क़ शायद किसी के साये में ताउम्र चलने का नाम है..ख़यालों पर कल्पना का जादू ..ख़ामोश जज़्बातों से उठता खामोशी का ही धुआँ है इश्क़ ! इमरोज़ ने एक जगह कहा है की साहिर बेहतरीन नज़्में लिखते गए , और बड़े उम्दा शायर हो गए , अमृता एक बड़ी कवयित्री बन गयीं लेकिन वे दोनों एक दूसरे की ज़िंदगी तक नहीं पहुँचे – ख़ामोशी की एक दीवार दोनों के बीच रही। उधर (इमरोज़ की ) ज़ोरबी, माज़ा, बरकते , आशी यानी अमृता को अगर इमरोज़ ना मिलते तो ज़िंदगी कैसी होती ? अमृता के जीवन के कैन्वस पर इमरोज़ का रंग ना होता तो अमृता इश्क़ के एक शेड से नावाक़िफ़ रह जातीं। इश्क़ का सबक़ पूरा नहीं हो पाता। उनकी प्यास का सफ़र मुकम्मल नहीं होता।

अमृता प्रीतम की जीवन यात्रा बंधन से स्वतंत्रता, सीमित से असीमित, चेतन से अचेतन मन की ओर रही है। अमीरी और फ़क़ीरी दोनो को साथ साथ लिए अमृता ताउम्र चलती रहीं। यूगोस्लॉवीया से रोमानिया , ताशकंद से तहरान .. और भी कई देशों में भारत के साहित्यकारों का प्रतिनिधित्व अकेले करती रहीं क्योंकि साथ जाने के सवाल पर कुछ साहित्यकारों की पत्नियों को एतराज़ हुआ था एक बार !

आज अमृता जी की जन्मतिथि के दिन उनको याद करते हुए  मुझे अपने वो दिन याद आने लगे जब खुली आँखों से हमने भी ख़्वाब देखे , उनकी कविताएँ , उपन्यासों और कहानियों को पढ़ कर आलम ये रहता की दिनों तक उसके नशे में चलते। अमृता जी की नज़र से देखते हुए जाने किस किस पात्र से प्यार हो जाता, ज़िंदगी की सच्चाइयों से और खुद से प्यार हो जाता।वारिस शाह से दुआ है की हर इश्क़ करने वाले हृदय में अमृता की रूह ज़िंदा रहे..

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