Thursday, April 25, 2024
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कहानी: स्वाद का मारा….

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चाँद का गोल आकार देखते ही में समझ गया कि आज पूर्णिमा की रात थी। पर चाँद पर नज़र पड़ते ही मेरे पेट की वो क्षुधा जिसे मैं कॉफी के माध्यम से सुलाने की कोशिश कर रहा था, पुनः जागृत हो गई …

देर रात, हाथ में कॉफी का बड़ा मग लिए मैं अपने एक कमरे के फ्लैट की बालकनी में आ कर खड़ा हो गया। सामने कई ऊँची इमारतों की खिड़कियों से रोशनी झाँक रही थी, मतलब इतनी रात गए निद्रा देवी के साथ मैं अकेला युद्ध नहीं कर रहा था। इस ख्याल ने मन को कुछ राहत दी। तभी नज़र आसमान में टिमटिमाते कुछ तारों के बीच बड़े से चाँद पर पड़ी। चाँद की चमक से सितारों की रोशनी कुछ धूमिल पड़ गई थी। चाँद का गोल आकार देखते ही में समझ गया कि आज पूर्णिमा की रात थी। पर चाँद पर नज़र पड़ते ही मेरे पेट की वो क्षुधा जिसे मैं कॉफी के माध्यम से सुलाने की कोशिश कर रहा था, पुनः जागृत हो गई। अब चाँद मुझे थाली में परोसी हुई माँ के हाथों की नर्म रोटी की याद दिला रहा था।। बचपन से ही जिस स्वाद की आदत लगी हो उसकी कमी तो खलना लाज़मी है। बरस-दर-बरस वो स्वाद अपनी जड़ें और मजबूत करता गया।

करीब दो बरस पहले उसी स्वाद के हाथों एक करारा तमाचा पड़ा जब पहली बार नौकरी के कारण मुझे इस बड़े शहर में आना पड़ा। एक प्राइवेट होस्टल, जहाँ मैं ठहरा, के मेस में जब खाने की थाली परोसी गई तो लगा कि वो थाली मुझे चुनौती दे रही थी कि हिम्मत है तो खा कर दिखाओ। अब मैं व्यर्थ में लंबा जिक्र नहीं करूँगा पर पहली बार मैं खाना खाकर रोया था।वक़्त बीता और धीरे-धीरे मैं उस खाने का आदि हो गया। कुछ वक़्त बाद कम्पनी की तरफ से मुझे ये फ्लैट मिला। फ्लैट में आते ही अगली चिंता कि यहाँ खाने का इंतज़ाम कैसे करूँ? कुछ दिनों तक तो आस-पास के  होटलों का सहारा लिया,  पर वो खाना पेट के साथ-साथ जेब पर भी भारी पड़ने लगा। फिर किसी ने बताया कि हमारी ही बिल्डिंग में एक महिला घर का बना खाना बहुत ही वाज़िब दाम में आपके घर तक पहुँचा देती हैं। इस डब्बा-सिस्टम के चलन  ने मुझे बहुत राहत पहुँचाई। ज़िन्दगी पटरी पर आ ही रही थी कि तभी कोरोना ने संसार मे भूचाल ला दिया। मेरी नाव भी डगमगाने लगी। मेरे खाने का डब्बा आना भी बंद हो गया। सम्पूर्ण लॉकडाउन।

Sketch by Shailja

ज़िंदगी में पहली बार यह अहसास हुआ कि हर इंसान को पाक-कला का इतना ज्ञान तो अवश्य होना चाहिए कि ज़रूरत पड़ने पर वो अपना पेट भर सके। पहली बार तब मैंने अपनी रसोई को गौर से देखा। वहाँ चाय, कॉफ़ी के सामान के अलावा चंद पैकेट बिस्किट, नमकीन व मैगी के पड़े हुए थे। हाँ! दूध-ब्रेड और अंडे भी, पर अंडो को उबालने से ज्यादा कभी कुछ और कोशिश नहीं की थी। आज की तारीख़ में मेरी हालत ऐसी थी जैसे किसी को अमेज़न के जंगलों में अकेला और निहत्था छोड़ दिया हो। मैं भी इस वृहद, ईंट-गारे से बने शहर-नुमा जंगल में अकेले, बिना पाक-विद्या के हथियार के अपने उदर की ज्वाला से युद्ध कर रहा था। भूख और हताशा के सागर में गोते लगते हुए अचानक मुझे वीर-रस में डूबी,  श्री द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी द्वारा रचित एक कविता की पंक्तियाँ याद आ गईं-

“अन्न भूमि में भरा

वारि भूमि में भरा,

यत्न कर निकाल लो,

रत्न भर निकाल लो,

वीर तुम बढ़े चलो

धीर तुम बढ़े चलो।“

अब मुझे यह महसूस होने लगा कि इस विषम परिस्थिति में सिर्फ मैं ही अपनी मदद कर सकता हूँ। रात का आखरी पहर शुरू हो चुका था। मेरी कॉफ़ी भी खत्म हो चुकी थी। अगली सुबह को मैं एक नई सुबह बनाऊँगा, इस सोच के साथ मैं सोने चला गया।

करीब दो बरस पहले उसी स्वाद के हाथों एक करारा तमाचा पड़ा जब पहली बार नौकरी के कारण मुझे इस बड़े शहर में आना पड़ा। एक प्राइवेट होस्टल, जहाँ मैं ठहरा, के मेस में जब खाने की थाली परोसी गई तो लगा कि वो थाली मुझे चुनौती दे रही थी कि हिम्मत है तो खा कर दिखाओ।

कुछ नया करने के रोमांच ने मुझे रात के बचे हुए चंद घंटों में भी करवटे बदलने को मजबूर कर दिया। जागती आँखों से मैं तारों को भोर की रौशनी में खोते देखता रहा। जैसे ही सूर्य देव ने दर्शन दिए मैं तरो-ताजा होने चला गया। तैयार होकर जब बाहर आया तो यूँ लगा मानो किसी बहुत बड़े मिशन पर जा रहा हूँ। रसोई में आते ही उसकी ग़रीबी का आभास पुनः हो गया। खैर उसे सांत्वना देते और खुद से आज ही उस ग़रीबी को कुछ हद तक दूर करने का वादा करते हुये, मौजूद सामग्री से ही नाश्ता बनाने का सोचा। बर्तन ढूँढने चला तो याद आया कि घर से आते वक्त माँ ने एक कार्टन में डाल कर जो बर्तन दिए थे वो अभी तक उसी में पड़े हैं। दिल में आया कि अपनी लापरवाही की तारीफ़ में कुछ कसीदे छाप डालूँ, पर मन मसोस के रह गया।

माँ ने जरूरत के लगभग सारे बर्तन दिए थे। अंडे और ब्रेड के अलावा कुछ और बनाने को था ही नहीं। निर्णय लिया कि ब्रेड के साथ अंडे का ‘सनी साइड अप’ बनाया जाए। पर जंग में कूदने से पहले तैयारी करनी ज़रूरी थी। मैंने इंटरनेट पर कुछ वीडियो देखे और जाना की अंडे को सही तरीके से तोड़ना भी एक कला है। खैर थोड़ी जद्दोजहद के बाद मैंने अपना नाश्ता तैयार कर लिया। मेरे होठों पर एक गर्व भरी मुस्कुराहट उभरी। लगा मानो कोई किला फ़तेह कर लिया हो, साथ ही यह भी अहसास हुआ कि जब हम अपने सामने परोसी हुई हुई भोजन की थाली का लुत्फ़ उठा रहे होते हैं तो यह एक बार भी नहीं सोचते कि इसके पीछे कितनी मेहनत होती है।

अपनी मेहनत से जो हर रोज हमारे लिए भोजन तैयार करते हैं, चाहे वो परिवार के सदस्य हों या होटल, ढाबे वाले,  उन सबकी अनदेखी मेहनत को आज दिल से पहली बार मैंने नमन किया। अच्छा भोजन तो हम सभी चाहते हैं पर पकाने की ज़हमत हर कोई नहीं उठा सकता। वर्तमान हालातों ने मुझे तकलीफ तो दी पर बहुत कुछ समझाया भी। मैंने भी यह सोच लिया कि आज जो मैंने स्वाद का सफर शुरू किया है उसे आगे भी जारी रखूँगा और कुछ न कुछ नया सीखता रहूँगा। अपना नाश्ता करते-करते मैंने माँ को वीडियो-कॉल लगाया और कहा, “ माँ, मुझे रसोई के लिए कुछ जरूरी राशन की लिस्ट बनाने में मदद कर दे।“

माँ, के चेहरे पर हर्ष के साथ सुकून दिखा और वो धीरे-धीरे मुझे बताने लगी……… ।

— शैलजा

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