सोनामुखी अपने उत्कृष्ट रेशम की बुनाई के लिए जाना जाता है और पिछले चार दशकों से यहाँ बुना गया सारा माल अफ़ग़ानिस्तान एक्सपोर्ट किया जाता है। लॉक डाउन और कोरोना ने पहले ही हालत खराब कर रखी थी, तालिबानी क़ब्ज़े ने तो बुनकरों की कमर और उम्मीद दोनों ही तोड़ डाली।
काबुल से तकरीबन तीन हज़ार किलोमीटर दूर पश्चिम बंगाल के बांकुड़ा ज़िले के सोनामुखी कस्बे के लगभग 150 घरों में काबुल पर तालिबानों के कब्जे से मातम से पसर गया है।
है ना हैरान करने वाली बात, माना तालिबानों की जीत से पूरी दुनिया में शायद ही कोई खुश होगा, पूरे विश्व की नजरें अफ़ग़ानिस्तान में होने वाले एक एक घटनाक्रम पर टिकी हुई हैं और वहां के हालात गहरी चिंता का विषय जरूर हैं लेकिन मातम तो कहीं नही मनाया जा रहा, फिर सोनामुखी में ऐसा क्या खास है जो तालिबानी शासन से इतना प्रभावित हुआ है?
दरअसल सोनामुखी अपने उत्कृष्ट रेशम की बुनाई के लिए जाना जाता है और पिछले चार दशकों से यहाँ बुना गया सारा माल अफ़ग़ानिस्तान एक्सपोर्ट किया जाता है। लॉक डाउन और कोरोना ने पहले ही हालत खराब कर रखी थी, तालिबानी क़ब्ज़े ने तो बुनकरों की कमर और उम्मीद दोनों ही तोड़ डाली।
ये सारा सिलसिला तकरीबन 40 वर्ष पहले शुरू हुआ था जब कुछ पख्तूनी लोग जिन्हें आज भी बंगाल में काबुलीवाले बुलाते हैं, व्यापार करने मसाले,ड्राइफ्रूट्स आदि लेकर आया करते थे। स्थानीय बुनकरों से भी व्यापार होता था, और धीरे धीरे इन बुनकरों की उत्कृष्ट सिल्क की बुनाई ने अफगानियों के दिल जीत लिए और सोनामुखी कस्बे में रहने वाले करीब 150 परिवार अफगानियों के लिए रेशमी पगड़ियाँ बनाने का कारोबार में ही लग गया और धीरे धीरे काम इतना बढ़ा कि बंगाल से तैयार माल गुजरात के रास्ते निर्यात होने लगा। एक तैयार पगड़ी की कीमत एक हज़ार से लेकर चार हज़ार रूपयों की होती है और एक बुनकर एक महीने में लगभग 20 से लेकर 50 तक पगड़ियाँ तैयार कर लेते हैं,पीढ़ियों से चला आ रहा यह पगड़ी व्यापार, कुछ मंदा तो कोरोना की वैश्विक मार और लॉकडाउन के दौर में हो ही चला था लेकिन तालिबानों के सत्ता में आते ही अचानक से ठप्प पड़ गया।
भारत में बुने गए उत्कृष्ट सिल्क, मलमल, मसलिन की खपत और मांग अन्य इस्लामिक देशों में वर्षों से है। सरकार को बुनकरों के उत्कृष्ट काम को अन्य अंतरराष्ट्रीय बाजारों में भी पहुंचाना चाहिए, इससे बुनकरों को तो रोज़गार मिलेगा ही, विदेशी मुद्रा की आमदनी सरकार की भी बढ़ेगी। फ़िलहाल सोनामुखी के बुनकर इंतज़ार ही कर सकते हैं…
सोनामुखी के 150 बुनकर परिवार अपने पेशे अपनी रोज़ी रोटी को अचानक छिनता हुआ देख सदमे और शोकाकुल हो सांसें रोके तालिबान सरकार के अगले कदम का इंतज़ार कर रहे हैं। जाने ऐसे उम्दा बुनकरों का कारोबार, व्यापार फिर से चल निकलेगा या फिर इनकी कारीगरी एक बार फिर से पारंपरिक बुनाई में तब्दील हो जाएगी यह तो समय ही बताएगा। लेकिन सरकार और सरकारी तंत्र को इन बुनकरों की हालत का संज्ञान लेना चाहिए ताकि निर्यात के अवसर इस तरह खत्म न हों।
भारत में बुने गए उत्कृष्ट सिल्क, मलमल, मसलिन की खपत और मांग अन्य इस्लामिक देशों में वर्षों से है। सरकार को बुनकरों के उत्कृष्ट काम को अन्य अंतरराष्ट्रीय बाजारों में भी पहुंचाना चाहिए, इससे बुनकरों को तो रोज़गार मिलेगा ही, विदेशी मुद्रा की आमदनी सरकार की भी बढ़ेगी। फ़िलहाल सोनामुखी के बुनकर इंतज़ार ही कर सकते हैं…
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