पाश .. मेरी दृष्टि में ..

अवतार सिंह संधू , (तख़ल्लुस ‘ पाश ‘ ) .. की कविताएँ पढ़ कर अंतस की ख़ामोशियों में आँधी सी आती है , और बेमतलब चल रहे शोर-शराबे कहीं इधर उधर मुँह छुपाने लगते हैं ।

सोचती हूँ की कई बार कुछ लोगों की ज़िंदगी उस अंगीठी की तरह है क्या जिसको उसकी मंज़िल की ओर ले जाने के लिए पहले खूब फूँक मारनी होती है .. आँखों को धुआँ पीना पड़ता है फिर कहीं आग जलती है ! पाश की  कविता “ सबसे ख़तरनाक” वाक़ई सबसे ख़तरनाक है !! पर उससे अधिक ख़तरनाक है उनकी वो कविता जिसकी सादगी अपने आप में प्रेम पर लिखी जाने वाली कविताओं में क्रांति स्वरूप है ।

क्रांतिकारी विचारधारा वाला कवि जब अपनी रूमानी कविता में ये कहे की “…..उस कविता में मेरे हाथों की सख़्ती को मुस्कुराना था ..!” तो क्या ये ऐसा नहीं लगता जैसे दो आँखों में से एक में इंक़लाब और दूसरे से कोई रुबाई छलक रही हो ? कैसा सम्मोहन होगा ऐसी दृष्टि में ? तभी तो पाश ने नयी पीढ़ी के बुद्धिजीवियों को अपने पाश में बांध रखा है !

पाश एक जादू का नाम है .. जब भी उनको सोचती हूँ तो उनकी सोच रंगों की शक्ल में नहीं दिखती .. जैसे मुझे आम तौर पर साहित्यकारों की सोच रंगों या किसी पेंटिंग की तरह दिखती है .. अमृता जी या पाब्लो नेरुदा की कविताएँ हों या गेब्रीयल Garcia मार्केज़ की कहानियाँ …पाश एक ऐसा रंग है जिसे किसी नाम के दायरे में नहीं बांध सकते..जब आँखों को धुँआ लगता है तो आँखें धुँआ देखें ना देखें  उसका होना ज़्यादा महसूस करती हैं .. ना आँखें पूरी बंद हो पाती हैं , ना खुली रह पाती हैं .. आँखों से पानी भी निकल आता है और उसे रोना भी नहीं कहते .. या यूँ कहें की पाश ख़ुशबुओं से भरा धुँआ है जिसके शब्दों की लकड़ियों से उठता धुँआ, ज़ेहन में ख़ुशबू की तरह उतरता है ?

 

— वंदना ज्योतिर्मयी

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