योग एवं योगविद्या
योग की परंपरा सनातन युग से चली आ रही है । हमारे धर्म गुरुओं ने , ऋषि मुनियों ने , समय समय पर सामाजिक परिवेश को केंद्र बनाकर योग को पारिभाषित करने का प्रयास किया है।
योग – अर्थात – जुड़ना
किससे ?
अपने आप से , अपने समस्त अस्तित्व से जो अपार संभावनाओं का स्त्रोत बिन्दु है तथा व्यक्तित्व के समग्र विकास की पाठशाला है।
योग विद्या – उन विधियों की ओर संकेत करती है जिन्हें अपनाकर हम अपने व्यक्तित्व के सभी आयामों में सामंजस्य स्थापित कर सकते हैं ।
प्रकृति प्रदत्त उर्जा , जो हमारे भीतर अंतर्निहित है उसकी समुचित अभिव्यक्ति ही योग का मुख्य उद्देश्य रहा है , जिससे प्राणी मात्र का कल्याण हो सके । यह मात्र सुनने , पढ़ने अथवा मनन करने की विद्या नहीं है अपितु हर पल जीवन जीने की कला है जिसे सजगता , निरंतरता एवं समर्पण से फलीभूत होते हुए अनुभव किया जा सकता है ।