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एक लघु कथा
श्रद्धा एवं विश्वास – सिद्धांत एवं व्यवहारिकता में महान अंतर
एक गाँव में एक माँ अपने बेटे के साथ रहती थी| छोटी सी दुनियाँ पर अपार प्रेम एवं विश्वास भरा संसार | माँ मेहनत मजूरी करके अपने लाडले के सपनों के पंख में पैबंद लगाया करती और बेटा दिन – रात एक कर मंजिल पाने में संलग्न | पास ही एक सेठ का किला सरीखे भवन को देखकर माँ का मन भी हुलसता | काश ! अपने पुत्र को भी एक अपना घर दे पाती? अपने ईष्ट में अपार श्रद्धा एवं विश्वास के सहारे जीवन यापन करती जाती न कोई शिकवा न दुःख | एक दिन पास ही एक झोपड़ी बिकी | माँ ने उसे खरीद लिया यह सोंचकर कि आगे के झाड़ झंखार को साफ कर सुंदर बना देगी बेटा देखकर खुशी से झूम उठेगा | पर ऐसा कुछ नहीं हुआ ………बेटे की आँखें बुझ गयीं………शंका से भरी…..| दिन बीतते चले | दोनों अपनी दिनचर्या में व्यस्त |
एक दिन अचानक सेठ का बुलावा आया | कहा — मैं विदेश में बसने जा रहा हूँ | तुम इस गाँव की सबसे ईमानदार एवं वरिष्ठ हो अतः उपहार स्वरूप ये मकान तुम्हे देना चाहता हूँ ताकि इसका सदुपयोग हो सके और भगवान का वास बना रहे | कागजात पर हस्ताक्षर करने का समय आया तो माँ ने बेटे को बुलाना चाहा | बेटा आया….हालात से रूबरू होते ही माँ के पैरों पर गिर पड़ा…….रोते हुए कहा………माँ ! तुम्हारी निष्ठा और विश्वास की जीत हुई मैं हार गया | माँ ने उसे कलेजे से लगा लिया |
सपर्पण सिर्फ वाणी में नहीं व्यवहार में होनी चाहिए
— सं. योगप्रिया (मीना लाल)