-अभिषेक कुमार सिंह
सोचिए — बच्चों की तरह आप भी किसी घर में जन्म लेते हैं। माँ-बाप देखते हैं कि आप लड़का हैं। आपकी किलकारियों से पूरा घर प्रफुल्लित हो उठता है। आपको भी और बच्चों की तरह ही अपने माँ-बाप से बहुत प्रेम मिलता है। आपके भी माता-पिता आपके भविष्य को लेकर बहुत से सपने देखने लग जाते हैं।
यूँही परिवार वालों की गोदियों में खेलते-खेलते आप करीबन 3-4 के हो जाते हैं। आप में अब चीज़ों को समझने की ,पसंद-नापसंद करने की थोड़ी बहुत बुद्धि आ जाती है। आपका कुछ चीज़ों के प्रति बहुत ही आकर्षण होता है और कुछ चीज़ें आप उतनी पसंद नहीं करतें। अब चाहे वह कोई खेल हो, खिलैना हो, कपड़ें हो या कोई रंग। यूँही जब तक आप अपने पसंद को खुद तक रखते हैं, आपका बचपन और जीवन सही चल रहा होता है, पर जैसे ही आप उसे पाने के लिए हाथ आगे बढ़ाते हैं, आपका हाथ पीछे खिंच लिया जाता है। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि आपकी पसंद परिवार के और लोगों के योजना और अपेक्षा के विपरित होती है। आपने एक लड़के के रूप में जन्म लिया है। घरवालों का मानना है कि खेल, खिलैने एवं कपड़ें आपको लड़कों वाले, और रंग आपको नीला पसंद आना चाहिए। पर आपका दिल बार बार गुलाबी फ्रॉक में बहनों के साथ खेलने की चाहत रख रहा है। भाइयों के साथ क्रिकेट खेलने से ज्यादा आपको माँ के साथ रोटी बनाने में मन लग रहा है। आपकी ये हरकतें परिवार वालों के मन में डर पैदा कर रही है। परिवार वालों के मन में अजीब- अजीब से ख्याल आ रहे हैं। माँ-बाप और परिवार के लोग अब आपको आपके हर हरकत पर टोकना शुरू करते हैं। आपको ऐसी चीज़ों को करने से मना किया जाता है जो आपने कभी सीखा नहीं है, वह आप में प्राकृतिक है। आपके चलने के तरीके पर आपको टोका जाता है। आपको जबरदस्ती लड़कों वाले खेल खेलने के लिए भेजा जाता है। आपके सामने से फ्रॉक और माँ की लिपस्टिक-बिंदी छुपा कर रखी जाती है। आपको वो हर चीज़ करने से रोका जाता है जो आपको करना पसंद आ रहा है। ऐसा आपके भाइयों-बहनों के साथ नहीं होता।
कुछ साल बिताते हैं। आपका दाखिला स्कूल में होता है। और जैसे आप अपना पहला कदम बाहर रखते हैं, इस दरिंदे समाज का आप पर उत्पीड़न की प्रक्रिया शुरू हो जाती है। छोटे-मोटे खिल्ली-मज़ाकों के बीच आप और आपके सहपाठी थोड़े बड़े हो जाते हैं। अब आपकी शारीरिक बनावट और चाल-ढंग के आधार पर आपको छक्का, हिजड़ा जैसे उपनाम मिलना चालू हो चुका है। मोहल्ले और विद्यालय में अब आप मनोरंजन का सबसे बड़ा साधन बन चुके हैं। लड़के कभी आपकी छाती छू कर चले जाते तो कभी नितंबों पर हाथ मार के। आप कुछ समय तक इसको सहते हैं। फिर आप उनसे लड़ने के लिए आगे बढ़ते हैं। पर एक तरफ आप अकेले हैं, दूसरी तरफ पूरा झुंड। आपको मारा जाता है, पीटा जाता है, घायल कर दिया जाता है। इधर परिवार में दुःख का मानो बादल घिर जाता है। वो चाह के भी हर एक से नहीं लड़ सकतें। अतः वो आपको ही बदलने की जद्दोजहद करने लग जाते हैं। मार-पिट के शिकार आप घर मे भी होते हैं। मानो पूरा संसार ही आपके खिलाफ में खड़ा हो गया हो। आपको ऐसी चीज़ की सज़ा देना चाह रहा हो, जिसका आधार कर्म नही, जन्म है। माँ रोती रहती है, पर कुछ बोल नहीं पाती। आप भी इन अत्याचारों को देख कर खुद को बदलना चाहते हैं, पर आप हर बार असफल हो जाते हैं। आप जो हैं, उसके लिए आप खुद को कोसने लग जाते हैं। पर आप चाह कर भी खुद को बदल नहीं पातें।
यह अत्याचार चलता ही रहता है और दसवीं से बारहवीं पार कर जाते हैं। स्नातक की पढ़ाई चल ही रही होती है कि किसी रोज आपकी मुलाकात किसी स्टेशन पर किन्नरों के एक झुंड से होती है। वहाँ आपकी दोस्ती कुछ किन्नरों से हो जाती है। अब आप उनसे अक्सर मिलने लग जाते हैं। यह परिवार के लिए एक सदमे सा हो जाता है। अब आप मजाक के पात्र के साथ, आसपास के लोगों के चर्चा का सबसे मुख्य विषय बन चुके हैं। आपके परिवार के लोगों से लोग सवाल करने लगे हैं। आपके पिता को लोग भड़का रहें हैं। आपकी हरकतों को रोकने के लिए, अलग अलग उपाय बता रहें हैं। आपके पिता का गुस्सा आप पर निकल रहा है। आपको पीटा जा रहा है। यहाँ तक कि आपको मरने की सलाह दी जा रही है। इसी उत्पीड़न के बीच आपकी स्नातक की पढ़ाई पूरी होती है और फिर एक दिन आप घर छोड़ कर चले जाते हैं।
आपके पॉकेट में एक रुपया नहीं और ना ही कोई मंज़िल। आप इस स्थिति में उसी किन्नर के समूह के पास जाते हैं। आपको उनकी मदद मिलती है। वो आपको वह प्रेम देते हैं जैसा आपको पहले कभी नहीं मिला क्योंकि पहली बार आपको कोई समझ पा रहा है। आप अपने बाल बढ़ा लेते हैं। … जीविकोपार्जन के लिए वो आपको नाचना, गाना और ताली बजाना सिखाते हैं। दुःख तो यह भी आपको देती है पर आपको ऐसे लोगों के बीच रहना का भी मौका देती है, जो आपको समझते हैं।
जीविकोपार्जन के लिए कभी आप शादियों में नाचते हैं तो कभी किसी बच्चे की जन्म पर। कभी ट्रैन में पैसे मांगते हैं तो कभी सेक्स वर्कर का काम करते हैं। यह रास्ता भी इतना सहज नहीं होता। कभी समारोह में नाचते समय लोग आपका हाथ खींचतें, आपका शरीर नोच लेते तो कभी आपको गंदी-गंदी गालियाँ देते हैं। ट्रेन में मांगे हुए पैसे अक्सर आसपास के लफंगे आपसे छीन लेते हैं तो कभी साड़ी उठा कर रेलवे पुलिस को प्रमाण देना होता कि आप किन्नर हैं। अक्सर आपको सनकी पुलिसों की लाठियां खानी पड़ती तो कभी कुछ पुलिस सेक्स करने के लिए उत्पीड़ित करते हैं। रात में आपको पुलिस के डर से प्लेटफॉर्म पर मुँह पर साड़ी का पल्लू डाल के सोना पड़ता है।
इस बीच आपकी बात आपकी माँ से फोन पर होती है। माँ आपसे घर वापस आने के लिए बहुत आग्रह करती है। माँ के बहुत जिद्द करने पर आप घर वापस चले जाते हैं। पर वहां आपको बाल कटवाने और मर्दों की तरह शर्ट पैंट पहनने को कहा जाता जो कि आपके प्रकृति के खिलाफ है। आपको मोहहल्ले के वो लड़के जो कभी शर्ट पैंट में देखा करते थें, साड़ी में देख के छेड़ने लग जाते हैं। उनका विरोध करने पर वो आपको मारते हैं। आपके स्तन पर इतनी ज़ोर से प्रहार करते है कि आपको दस दिन बिस्तर पर रहना पड़ता है। ठीक होने के तुरंत बाद आप घर छोड़ के दुबारा पास के किसी शहर में चले जाते हैं। वहां फिर से आप नाचना गाना, ट्रैन में पैसे मांगना चालू करते हैं। इसी बीच माँ आपसे मिलने आती है और आपका एक छोटा सा कमरा, दो चार बर्तन और दुःख में कट रही ज़िन्दगी को वह देख नहीं पाती और कुछ दिन बाद ही उनकी मृत्यु हो जाती। यह आपको अंदर से और खोखला कर देता है। अब आपके लिए दुनिया मे रोने वाला कोई नहीं बचता।
कुछ समय बीतता है और आपको यह एहसास होता है कि शायद आप अपनी पढ़ाई पूरी कर लें तो आगे कुछ रास्ता निकले। इस नाचने गाने वाली ज़िन्दगी से कुछ सालों के बाद छुटकारा पा सकें। आप जिस शहर में रह रहें हैं, उसी शहर के एक कॉलेज में स्नातकोत्तर में दाखिला लेते हैं। आप पढ़ाई के लिए अब भी नाच गाकर ही पैसे इकट्ठा करते हैं। कॉलेज में भी आपको उसी तरह के तंजों, मज़ाक और भेदभाव का सामना करना पड़ता है। रंगदार लड़के आपको छेड़ते हैं, मारते हैं। किसी तरह आपकी स्नातकोत्तर की पढ़ाई पूरी होती है। आपको ऐसा लगने लगता है कि आपको एक सुनहरा भविष्य मिल सकता है। पर यहां दृश्य ही अब आपको अलग दिखती है। निजी संस्थाओं में आपको देखकर ही नौकरी नहीं देतें और सरकारी विभागों में आपको तीसरे जेंडर का कॉलम ही नही दिखता है। आप एक एन.जी.ओ. से मिलते हैं और उस सरकारी विभाग पर ही केस दर्ज कर देते हैं। आप केस जीत जाते हैं। वो विभाग तो तीसरे जेंडर का कॉलम दे देती है, पर अब भी कई विभागों में तीसरे जेंडर का कॉलम नहीं दिखता है। स्नातकोत्तर में आपके साथ जितने भी आपके साथी हैं, सभी अब कहीं न कहीं नौकरी, व्यवसाय कर रहें हैं पर आप अब भी ट्रेनों में पैसे मांगने के लिए मजबूर हैं।
यह कहानी है 10/02/1990 में बिहार के वैशाली, हाजीपुर में जन्मी क्रांतिकारी वीरा यादव की। वीरा यादव का जन्म एक संयुक्त परिवार में हुआ। वीरा अपने माँ बाप की ये तीसरी संतान हैं। इनके दो बड़े भाई हैं। वीरा ने जी.ए. इंटर स्कूल, हाजीपुर से अपनी दसवीं की पढ़ाई पूरी की। फिर 2006 में चौरसिया राजकिशोर महाविद्यालय , हाजीपुर से इंटर एवं 2009 में जमुनिलाल महाविद्यालय, हाजीपुर से स्नातक की पढ़ाई पूरी की। स्नातक के बाद ही वह पाँच साल इटारसी, मध्यप्रदेश में रहीं। वहाँ उन्होंने नाचने-गाने, ट्रैन में पैसे मांगने जैसे काम कियें। पाँच साल के बाद पुनः माँ के फोन पर ज़िद करने पर वो हाजीपुर गयीं। पर कुछ ही दिनों में परिवार और मोहहल्ले के उत्पीड़न के बाद वहाँ से भाग कर पटना चली आयीं। पटना में ही ट्रेनों में पैसे मांग कर, समारोह में नाच गा कर पटना कॉलेज से सोशल वर्क में 2018 में अपनी स्नातकोत्तर की पढ़ाई पूरी की। स्नातकोत्तर के बाद उन्होने स्वास्थ्य विभाग में नौकरी के लिए आवेदन देना चाहा पर वहां इन्हें तीसरे जेंडर का कोई विकल्प नहीं दिखा। इन्होनें अपने कुछ साथियों की मदद से उस सरकारी फॉर्म पर ही केस कर दिया। वीरा यादव जीत गयीं। आखिर में सरकार ने उस फॉर्म को तीसरे जेंडर के विकल्प के साथ फिर से निकाला। इनके और इनके साथियों के आंदोलन का ही फल है कि अब बिहार सरकार ने किन्नरों की एक पुलिस बटालियन बनाने का फैसला लिया है।
मुगल सलतनत के बाद बिहार सरकार ही है जो किन्नरों को इतनी बड़ी संख्या में नौकरी देने वाली है। पटना में वीरा यादव को रेशमा प्रसाद, जो खुद भी एक किन्नर है, का बहुत सहयोग मिला। रेशमा प्रसाद राष्ट्रीय ट्रांसजेंडर परिषद व एन.जी.ओ. दोस्ताना सफर की सक्रिय सदस्य हैं। वीरा यादव अब भी जीवन गुज़र-बसर करने के लिए लोगों से ट्रेनों, दुकानों में पैसें मांगने के लिए मजबूर हैं। पर अब वह किन्नर समुदाय के हक के लिए दोस्ताना सफर एन.जी.ओ. के साथ लड़ाई में सक्रिय भी हैं।
यह कहानी सिर्फ वीरा यादव की ही नहीं, इनके जैसे हजारों किन्नरों की है। समाज से किन्नरों को हमेशा ही दुर्व्यवहार मिला है। इन्हें समाज का हिस्सा कभी माना ही नहीं गया। या तो कोई इन्हें देखकर इनके शरीर को रगड़ता हुआ निकल गया या तो कोई देख कर दूर से ही भाग गया। पर इनके साथ कोई रुका नहीं। इनसे कभी किसी ने बात नहीं की। इनके दिल का कभी हाल नहीं जाना। लोगों को कर्म के आधार पर सजा मिलती है, इन्हें जन्म के आधार पर सज़ा दी गयी। इन्हें कभी परिवार के समारोह में बुलाया नहीं जाता है। अगर कोई घर मे मर भी जाये तो इन्हें बुलाया तो जाता है पर लोगों के सामने नहीं लाया जाता। कमरे में ही बंद रखा जाता है। यह मर भी जाये तो इनके शरीर को रात में घाट तक ले जाया जाता है। किन्नर साथी ही इनका अंतिम संस्कार करते हैं।
अपने आस पास अक्सर आपने ऐसे लोग जो डरते हैं, किसी से लड़ नहीं पाते, उनको हिजड़ा, छक्का जैसे उपनाम मिलते देखा होगा। पर आपके भाषा मे जिसे आप हिजड़ा कहते है, वो तो वो लोग हैं जो पल पल समाज और दुनिया से लड़ते रहते हैं, उनका सामना करते हैं।
ट्रेनों में अक्सर आपने इन्हें जबरदस्ती पैसे मांगते देखा होगा। आपने इन्हें एक नजर में नापसंद कर लिया होगा। उन्हें पास आते देख आपने अपनी आंखें मूंद ली होगी। पर सच्चाई यह है कि यह वह समाज ही है जिसने उन्हें जबरदस्ती करने को मजबूर किया है। जबरदस्ती अपनी जिंदगी को चलाने के लिए मजबूर किया है। और अगर इनसब कामों से वह कुछ पैसे इकट्ठा कर भी लेती हैं तो समाज उनपर कोई एहसान नहीं कर रहा। उनका हक बस ये माँगे हुए पैसे नहीं, समाज मे इज्ज़त और अन्य लोगों के समान अधिकार है। हर सरकारी और निजी स्कूलों, कॉलेजों, नौकरी देने वाली संस्थानों में तीसरे जेंडर का विकल्प इनका हक है। जिस तरह सदियों से इन्हें दबाया, कुचला गया है, सरकारी नौकरियों में आरक्षण इनका हक है। और जबतक इन्हें ये अधिकार नहीं मिलता, समाज, सरकार और खुद से इनकी लड़ाई चलती ही रहेगी।
आखिर में वीरा यादव, रेशमा प्रसाद जैसे क्रांतिकारी किन्नर भाई-बहनों की लड़ाई को जिंदा रखने के लिए अवतार सिंह संधू ‘पाश‘ की एक कविता की कुछ पंक्तियाँ-
हम लड़ेंगे
कि लड़े बगैर कुछ नहीं मिलता
हम लड़ेंगे
कि अब तक लड़े क्यों नहीं
हम लड़ेंगे
अपनी सज़ा कबूलने के लिए
लड़ते हुए मर जाने वाले की
याद जिन्दा रखने के लिए
हम लड़ेंगे।
— साभार हॉटलाइन
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