हिंदी हमारी राष्ट्रीय अस्मिता की प्रतीक है - pravasisamwad
October 13, 2021
24 mins read

हिंदी हमारी राष्ट्रीय अस्मिता की प्रतीक है

किसी भी भाषा की उन्नति उस देश के नेतृत्व की इच्छा शक्ति पर निर्भर करती है।जब हिंदी बोलने वालों को दोयम दर्जे का माना जाने लगाए तब भारत में ऐसे नेता भी पैदा हुए जिन्होंने भारत में ही नहीं  भारत के बाहर भी अपनी मातृभाषा में अपनी बात रखकर हिंदी भाषियों का सिर गर्व से ऊंचा कर दिया और हिंदी का मान दुनिया भर में बढ़ाया

  • राजकुमार जैन

14 सिंतम्बर 1949 को भारत की संविधान सभा ने हिंदी को राजभाषा के रूप में स्वीकार किया था और तभी से प्रतिवर्ष 14 सिंतम्बर को हिंदी  दिवस के रूप में मनाने की शुरुआत हुई थी। हिंदी एक जीवंत भाषा है और समय के अनुसार अपने आप को बदला है।  यही कारण है कि आज हिंदी विश्वव्यापी भाषा है। किसी भी भाषा की उन्नति उस देश के नेतृत्व की इच्छा शक्ति पर निर्भर करती है। जब हिंदी बोलने वालों को दोयम दर्जे का माना जाने लगाए तब भारत में ऐसे नेता भी पैदा हुए जिन्होंने भारत में ही नहीं  भारत के बाहर भी अपनी मातृभाषा में अपनी बात रखकर हिंदी भाषियों का सिर गर्व से ऊंचा कर दिया और हिंदी का मान दुनिया भर में बढ़ाया।

किसी भी देश की एकता और अखंडता की रक्षा के लिए उस देश की भाषा और संस्कृति के प्रति निष्ठा और प्रतिबद्धता का होना जरूरी है। भाषा और संस्कृति के द्वारा ही कोई भी समाज राष्ट्र के रूप में अस्मिता बोध के साथ खड़ा होता है। हिंदी भाषा का राष्ट्रीय अस्मिता के साथ गहरा सम्बंध है। दरअसल  कोई भी भाषा राष्ट्र की धड़कती हुई जिंदगियों का स्पंदन हैं। भाषा संस्कृति की वाहक भी होती है। हमारी अपनी हिंदी भी कुछ ऐसी ही है  जिसमें जिंदगी के अनोखे रंग बयाँ होते रहते हैं। इसकी सबसे बड़ी खासियत यही है कि वक्त के साथ विकास की दौड़ में खुद को ढालती रही व नई पीढ़ी से तालमेल बिठाकर चलती रही।परन्तु वैश्वीकरण के दौर में हमारे देश में अंग्रेजी भाषा के प्रति अभिजात्य वर्ग समर्पित होता गया। और हिन्दी के बारे में षड्यंत्र पूर्वक कुतर्कों के ऐसे जाल लगातार फैलाये जाने लगे जिसके कारण हिंदी आजतक अपना अनिवार्य ऐतिहासिक स्थान प्राप्त नहीं कर सकी।

आज तो देश के आम पढ़े.लिखे लोगों की मानसिकता को इतना प्रदूषित किया जा चुका है कि कभी।  कभी लगता है कि राष्ट्र भाषा के बारे में बात करना ही बेमानी हो गया है। ऐसी क्रूर और गुलाम मानसिकता पैदा करने वाले लोगों के कारण ही हिंदी भाषा राष्ट्र भाषा के पद पर आरूढ़ नहीं हो पाईए जबकि आज विश्व में सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषा का गौरव हिंदी को प्राप्त है। कुछ वर्षों से यह मिथ्या प्रचार भी किया जा रहा है कि रोजगार और प्रतिष्ठा की भाषा अंग्रेजी ही है। इसके परिणाम स्वरूप भारत में एक भाषाई अभिजात्य वर्ग पैदा हुआ है जो अंग्रेजी के माध्यम से अपने हितों का दोहन कर शेष भाषाई समाज को शोषण करता रहा है।

इस सबके बावजूद हिंदी भाषा इंटरनेट पर सबसे तेज गति से विकसित हो रही है। आज स्थिति बदल रही है। नव धनाढ्य व सम्भ्रान्त वर्ग में हिंदी को लेकर जो हिचकिचाहट थी वह वक्त के साथ खत्म होने लगी है। हिंदी भाषा मे शक्ति है आकर्षणए सामर्थ्य है। हिंदी सिर्फ़ एक भाषा नहीं एक एहसास भी है। आखिर इस एहसास को और कैसे मजबूत बनाया जाएए कैसे अपने करीब लाएं यह चिंतन.मनन जारी रहना ही चाहिए। हम हिंदुस्तान के किसी भी कोने  में चले जाएं आज भाषा हमारे लिए अवरोध नहीं बनती है। हिंदी निःसन्देह जन सम्पर्क की राष्ट्रीय भाषा बन चुकी है। जाहिर है कमी भाषा में नहीं स्वयं को हिंदी भाषी कहने वालों में हैं।और यह कमी ज्ञान या जानकारी की नहीं हैए कमी केवल आत्मविश्वास की है। हम हिंदी भाषियों ने कब और कैसे मान लिया कि हिंदी में लिखने या बोलने पर असर कम होगा। हम हिचक के साथ अच्छी हिंदी भी बोलेंगेए तो क्या खाक असर होगाघ् असल चीज है आत्म विश्वास! इसके साथ सामान्य भाषा भी असरदार होगी।इसलिए हिचक छोड़ें हिंदी बोलें लिखें पढ़ें!! डर कर अपनी भाषा को कृत्रिम न बनाएं! आवश्यकता है इच्छा शक्ति की और वह इस समय कोई कम नहीं है।अतः ज़्यादा से ज़्यादा हम अपनी भाषा हिंदी में अपने कामकाज को बढ़ाएं ताकि हिंदी को वह हक मिले जिसकी वो हकदार हैं। करीब 85 प्रतिशत भारतीयों द्वारा बोली. समझी जानेवाली भाषा हिंदी आज भी भारतीय जनमानस के बीच राष्ट्रीय जनसम्पर्क की भाषा बनी हुई है। हम हिंदी को श्वसुधैव कुटुम्बकमश् की जननी भी कह सकते हैं।आप भी आज ही हिन्दी पढ़नेए लिखनेए बोलने का संकल्प लें और कहें  हिन्दी  हैं हम!

हिंदी का मतलब है भारत में सामाजिक न्याय और एक वास्तविक राष्ट्र का निर्माण। ज्ञान तकनीक और प्रतिभा का विकास।औपनिवेशिक और मानसिक गुलामी से मुक्ति।हिंदी एक महाप्रवाह हैए किसी संकीर्ण सपने का ठहरा हुआ विचार नहीं है। यह देश इस भाषा में एक दिन जगेगा

बढ़ती टेक्नोलॉजी और बदलते जमाने में जहाँ हर तरफ बदलाव आया है वहाँ साहित्यिक सरोकारों में भी बदलाव आया ही है। गूगल  व इंटरनेट  ने लेखन को इंस्टेंट  बना दिया है। कालजयी रचना अब स्वप्न हो गई है। लेखन संवेदनाओं से विरक्त होता जा रहा है। कुछ अपवाद को छोड़कर हिंदी का लेखक अपनी किताबें छपवाने व बेचने के लिए क्या क्या नहीं करता है।  किताब छप जाने के बाद किस तरह नवोदित लेखकों पर अहसान जताता है किए मैंने  आपकी रचनाएँए परिचय पुस्तक समीक्षा छापी थी अब आपको मेरी किताब खरीदनी ही पड़ेगी। जबरदस्ती किताब भेजकर समीक्षा लिखने को गरियाएँगे। खुद भी फेस बुक पर समीक्षा हेतु पुस्तकें भेजने के निवेदन कई बार कर चके होंगे पर अब उन्हें किसी साहित्यकार का समीक्षा लेखन नहीं सुहाएगा। उपदेश देंगे की  समीक्षा लिखकर क्यों समय बर्बाद कर रहे हैं। इससे आपका मौलिक लेखन प्रभावित होता है। व्यक्तिगत मेसेज भेजकर किसी रचनाकार के प्रति दुष्प्रचार भी करेंगे और मजे की बात यह कि फेसबुक पर वह उसकी तारीफ करेंगे। ऐसे मुखौटे लगाए व्यक्ति  हिंदी के हितैषी साहित्यकार तो हो ही नहीं सकते। कुछ मौलिकता के साथ अधिकांश इंटरनेट के सहयोग से तैयार की गई सामग्री के बल पर अपने आपको महान साहित्यकारए विशेषज्ञ समझने की आत्ममुग्धता में ऐसी ऐसी अहंकार युक्त पोस्ट करेंगे जैसे उन्हीं के दिलो.दिमाग में ही सृजन के बीज हैं। जो उनकी पोस्ट पर कमेंट नहीं करेंगे व्यक्तिगत मेसेज भेजकर डराएंगे। एक बात समझ मे नहीं आती कि जो स्वयं साहित्यसेवी हैं वो दूसरों की लांछना करने क्यों अन्य सृजकों के घरों में ताक झांक करते फिरते हैं।तथाकथित साहित्यकार ऐसा कर  उभरते हुए सृजकों की भ्रूण हत्या ही नहीं करते हिंदी के प्रचार.प्रसार को भी अवरुद्ध करते हैं।साहित्यकार समाज से सौ.सौ कदम आगे का सपना लेता है।साहित्यकर ही है जो समाज को सपने देखने लायक बनाता है।उसे आग लगाने का नहीं समाज को संवारने का कार्य करना चाहिए। कोई कहानी लिखेए कविता लिखेए आलेख लिखे या समीक्षा उसमें उसका मौलिक चिंतन उभरकर आता है। यह रचनाकार की अपनी मर्जी हैए किसी के पेट में क्यों मरोड़ उठे कि कौन क्या लिख रहा हैघ् किसके साथ काम कर रहा है।  आप जबरदस्ती उसके मार्गदर्शक क्यों बनना चाहते हैं।  हमें अपनी मंजिल पाने के लिएए आगे बढ़ने के लिए दूसरों के रास्ते नहीं रोकने हैं। किसी की एक गलती के कारण हज़ार अच्छाइयों पर से आंखें नहीं मुंदनी है। मुँह मे राम बगल में छूरी वाली हिंदी जगत की इस इंटरनेटिआ साहित्यिक पीढ़ी को इस मानसिकता से बचकर केवल और केवल अपने सृजन हिंदी के उन्नयन की दिशा में कार्य करना चाहिए।आज का गुगलिया लेखक न तो अंग्रेजी भाषा जान पा रहा है और न ही मातृभाषा हिंदी का पूरा ज्ञान ले पा रहा हैए ऐसे रचनाकार हिंदी भाषा के संस्कार से न केवल विमुख है अपितु उसका सौंदर्य भी नष्ट कर रहे हैं।

हिंदी का संघर्ष देश में एकबार फिर पुनर्जीवित करने का षड्यंत्र रचा जा रहा है।अब बदलते हुए भारत में गांव कस्बों के करोड़ों युवा हैं जो सिर्फ भाषा के कारण इस तंत्र में खुद को वंचित पा रहे थे।उनके लिए भी उच्च शिक्षा के लिए मातृ भाषा में शिक्षण की छूट देकर सरकार ने हिंदी के सम्मान में एक कदम तो उठा ही लिया है। अब शिक्षा और नौकरियों में  भाषा की कोई बाधा नहीं रहेगी। हिन्दी  के समर्थन में नए आंदोलन का यही नया आधार भी बनेगा।भारत विकास के पथ पर जितना चलेगाए स्थित उतनी ही हिंदी के पक्ष में अनुकूल होती जाएगी। अब एक प्रचंड विरोध इस अंग्रेजी.वर्ग.आरक्षण का होना चाहिए। अंग्रेजी हमारे हमारे लिए मानसिक गुलामी और इस देश के बहुसंख्यक वर्ग पर वर्ग विशेष की भाषा बन गई है।

हिंदी का मतलब है भारत में सामाजिक न्याय और एक वास्तविक राष्ट्र का निर्माण। ज्ञान तकनीक और प्रतिभा का विकास।औपनिवेशिक और मानसिक गुलामी से मुक्ति।हिंदी एक महाप्रवाह हैए किसी संकीर्ण सपने का ठहरा हुआ विचार नहीं है। यह देश इस भाषा में एक दिन जगेगा।

हमारे लिए प्रसन्नता है कि हम हिंदी में लिखने वाले कई नवोदित रचनाकारों को हरसंभव प्रकाशित कर उन्हें प्रेरणा और प्रोत्साहन दे रहे हैं। उत्कृष्ट हिंदी साहित्य आप तक पहुंचा रहें हैं। हमारा सपना हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में प्रतिस्थापित होते देखना है।आप सब भी गर्व से हिंदी का सम्मान करें केवल औपचारिक रूप से हिंदी दिवस मनाकर ही अपने कर्तव्य की इतिश्री न करें। हमारा हर दिन हिंदी दिवस हो।

— साभार हॉटलाइन

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