पट्टचित्र सिर्फ एक अमूर्त कला नहीं है, बल्कि यह कहानी कहने के माध्यम से सांस्कृतिक विरासत को प्रस्तुत करती है। लंदन से लेकर टोक्यो तक इस कला की प्रदर्शनियाँ आयोजित की जा चुकी हैं। ऑनलाइन प्लेटफॉर्म, आर्ट फेयर और सांस्कृतिक एक्सपो के कारण इस कला की वैश्विक माँग लगातार बढ़ रही है।
पट्टचित्र पूर्वी भारत के ओडिशा और पश्चिम बंगाल में प्रचलित कपड़े पर बनाई जाने वाली स्क्रॉल पेंटिंग के रूप में जानी जाती है। इसका सांस्कृतिक और धार्मिक महत्व 5वीं शताब्दी ईसा पूर्व से 12वीं शताब्दी ईस्वी तक फैला हुआ है। संस्कृत में “पट्ट” का अर्थ होता है कपड़ा और “चित्र” का अर्थ चित्र—और इसी तरह ‘पट्टचित्र’ नाम बना। यह कला प्राकृतिक रंगों का उपयोग करते हुए मिथकों, कथाओं और दंतकथाओं को कपड़े, कैनवास या ताड़पत्र पर चित्रित करती है।
इस कला का मूल विकास पुरी के जगन्नाथ मंदिर में हुआ। चित्रकार परिवारों के कलाकार देव-देवियों की कथाएँ बनाकर मंदिर में प्रदर्शित करते थे। रथयात्रा के दौरान जब जगन्नाथ, सुभद्रा और बलभद्र की मूर्तियाँ स्नान-विधि हेतु हटाई जाती हैं, तब उनकी अनुपस्थिति में अनसारा पटि नामक पट्टचित्र उनके स्थान पर रखा जाता है। इस प्रकार पट्टचित्र मंदिर की धार्मिक परंपराओं, विशेष रूप से जगन्नाथ परंपरा, से गहराई से जुड़ा है।
पट्टचित्र के विषय मुख्य रूप से हिंदू पौराणिक कथाओं पर आधारित होते हैं—जिनमें भगवान जगन्नाथ, श्रीकृष्ण, महाभारत और रामायण के प्रसंग प्रमुख हैं। इसमें लोककथाओं, जनजातीय कहानियों और स्थानीय लोककथाओं के तत्व भी शामिल होते हैं। पारंपरिक विषयों में भगवान जगन्नाथ के जीवन प्रसंग, वैष्णव संस्कृति, कृष्णलीला, दशावतार और विभिन्न मंदिर परंपराएँ दर्शाई जाती हैं।

पट्टचित्र प्रायः कपड़े की स्क्रॉल पर बनते हैं, जिन पर प्रतीकात्मक आकृतियों के माध्यम से कथाएँ उकेरी जाती हैं। चमकीले रंगों और स्पष्ट रेखाओं का उपयोग पात्रों और उनकी कहानियों को उभारता है। इन चित्रों का मुख्य उद्देश्य आध्यात्मिक संदेशों को लोगों तक पहुँचाना होता है। कलाकार अक्सर ‘पटेर गीत’ (Pater Gaan) भी गाते हैं, जिससे चित्रकला एक जीवंत प्रस्तुति बन जाती है। समय के साथ इस कला में नए विषय भी शामिल हुए हैं, जैसे—पर्यावरण परिवर्तन, सामाजिक मुद्दे और महिलाओं के खिलाफ हिंसा। कपड़े के अलावा यह कला ताड़पत्र, साड़ियों और नारियल के खोलों पर भी की जाती है।
इन चित्रों में प्राकृतिक रंगों से बने गरम और मिट्टी जैसे टोन दिखाई देते हैं। उदाहरण के लिए—
- सफेद रंग शंख से
- काला रंग दीपक की कालिख से
- पीला हरिताल से
- लाल गेरू से
- नीला और हरा पौधों के अर्क से प्राप्त किया जाता है।
ओडिशा पट्टचित्र
पुरी में उत्पन्न ओडिशा पट्टचित्र अपनी बारीक विवरणों और चमकीले रंगों के लिए प्रसिद्ध है। इसमें बड़े, लंबाकार नेत्रों वाले पात्र, मंदिर के रथों में दिखाई देने वाली आकृतियाँ और वेद-पुराणों की कहानियाँ घूमते हुए पैटर्नों में उकेरी जाती हैं। यह रेशम या सूती कपड़े पर बनाया जाता है और पौधों, सीप और खनिजों से बने प्राकृतिक रंगों से रंगा जाता है।
ताड़पत्र पट्टचित्र (Tala Pattachitra)
इस शैली में कलाकार कपड़े के बजाय सूखे ताड़ के पत्तों पर चित्र बनाते हैं। इसमें लोककथाओं, हिंदू देवताओं और पुरानी दंतकथाओं के विषय शामिल होते हैं। कुछ प्रसिद्ध उदाहरणों में देवी मंगला की उग्र प्रतिमा, बाराबटी की कथाएँ और जनजातीय जीवन की लयात्मक कहानियाँ शामिल हैं।

बंगाल पट्टचित्र
बंगाल पट्टचित्र अपनी जीवंत कथा-वाचन शैली, प्राकृतिक रंगों और हस्तनिर्मित कागज़ के उपयोग के लिए जाना जाता है। यह हिंदू पौराणिक कथाओं को स्थानीय लोककथाओं और दैनिक जीवन के दृश्यों के साथ मिलाता है। इसमें गाँव के दृश्य, आम के पेड़ के नीचे राम–सीता, और देवी दुर्गा की छवियाँ आम हैं। कई कलाकार Pater Gaan गाते हुए हर चित्र को एक संगीत-नाटक जैसा अनुभव बनाते हैं।
आज पट्टचित्र कला को ओडिशा और बंगाल—दोनों को सांस्कृतिक धरोहर के रूप में GI टैग प्रदान किया गया है।




