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परदेस में आकर पूर्णा सबसे ज्यादा जलेबी को ही मिस करती है। यहाँ परदेस में उसकी पसन्द की लगभग सब मिठाईयाँ अपने डिब्बाबन्द अवतार में उपलब्ध हो जाती हैं….लेकिन जलेबी तो इंडिया जाकर ही मिलती है
पूर्णा…..आइशा दीदी का फ़ोन आया है जल्दी आओ!
अभी आई ….कह कर पूर्णा हाथ पोंछती हुई किचन से निकल सीधा इण्टरकॉम के रिसीवर की तरफ लपकी!
जी दीदी! इतनी सुबह सुबह कैसे याद किया?
अरे पूर्णा….आज इतवार है ना अकरम साहब जलेबियाँ लाये हैं….तुम और अविनाश फौरन आ जाओ….बिल्कुल गरमा गरम हैं….देर न करना….हम इंतज़ार कर रहे हैं….
जी दीदी!बस अभी आई! कहती हुई पूर्णा पैरों में चप्पलें अटकाती कमरे से दुपट्टा लेती हुई…निकल गई अविनाश को आवाज़ लगाती हुई कि दीदी ने जलेबियाँ खाने को बुलाया है जल्दी आ जाना मैं तो जा रही हूँ…..
जलेबियों की बात सुन अविनाश भी जल्दी से निकल अकरम साहब के घर की सीढ़ियां चढ़ने लगा….
जलेबियाँ पूर्णा को बचपन से बहुत पसन्द हैं…..और इंडिया में तो हर गली मोहल्ले चौक चौराहे पर सुबह सुबह गरमा गरम जलेबियाँ मिलती हैं….कहीं दूध जलेबी, तो कहीं रबड़ी जलेबी, कहीं समोसा जलेबी तो कहीं पूरी आलू और जलेबी….अलग प्रान्त अलग कॉम्बिनेशन! लेकिन जलेबी तो जलेबी होती है ऊपर से कुरकुरी करारी लेकिन अंदर से रसपगी मिठास भरी।आह!
यहां परदेस में आकर पूर्णा सबसे ज्यादा जलेबी को ही मिस करती है। यहाँ परदेस में उसकी पसन्द की लगभग सब मिठाईयाँ अपने डिब्बाबन्द अवतार में उपलब्ध हो जाती हैं….लेकिन जलेबी तो इंडिया जाकर ही मिलती है….ऐसे में आइशा दीदी के यहाँ से जलेबी की दावत….ओह!पूर्णा की तो जैसे लॉटरी लग गई थी।
आइशा दीदी भी इंडिया से हैं। पूर्णा और आइशा दीदी का रिश्ता इंडिया की गंगा जमुनी संस्कृति को पूरी तरह से चरितार्थ करता है, पूर्णा हमेशा से उन्हें अपनी बड़ी बहन मानती है और वो उसे छोटी बहन का सारा लाड़ देतीं हैं हालाँकि दोनो के व्यक्तित्व में जमीन आसमान का फ़र्क है एक ओर जहाँ आइशा दीदी साधारण पढ़ी लिखी मामूली,नैन नक्श वाली मितभाषी, घरेलू महिला हैं वो ज्यादा किसी से मेलजोल नहीं रखतीं। वहीं पूर्णा चंचल,बहुभाषी, विदुषी, कामकाज़ी महिला है जो नौकरी के साथ साथ संगीत के स्टेज परफॉर्मेंस भी देती है लेकिन दोनों ऐसे घुलमिल गईं हैं जैसे दूध में मिश्री! न मजहब न तालीम न रस्मों रिवाज़ न ज़बान कुछ भी तो साझा नही उनके रिश्ते में उन दोनों में साझा है तो बस इंडिया…..और इंडिया साझा होने का मतलब तो सुख-दुःख, परेशानी-ख़ुशी,पंजीरी-बिरयानी,सर्गी-इफ्तार, नेग-बधाई, कबाब-पकौड़ों का साझा होना होता है। परदेस में किसी अपने के मिलने की ख़ुशी और सुख को लफ़्ज़ों में बयाँ करना जरा मुश्किल है। वैसे तो जिस अपार्टमेंट में पूर्णा रहती है वहां एक छोटा सा हिंदुस्तान ही बसा है मानों……जरा और गौर करने पर पूरा इंडियन सबकॉन्टिनेंट ही कह सकते हैं। मसलन पूर्णा और आइशा दीदी तो इंडिया से हैं ही और भी कुछ भारतीय परिवार रहते हैं उस अपार्टमेंट मे, कई पाकिस्तानी परिवार भी हैं।
उनके अपार्टमेंट का केअर टेकर मामून बँग्लादेशी और पूर्णा का कुक रमना श्रीलंकाई। कुल मिला कर पूरा उपमहाद्वीप ही बसा हुआ है। ईद दीवाली क्रिसमस,क्रिकेट सब एक समान सेलिब्रेट होते हैं।ईद की सिवईयां पूर्णा के घर पक रही होती हैं तो दीवाली पर गुझिये आइशा दीदी बना रही होती हैं। होली के रंग सबको एक समान भिगोते हैं और क्रिसमस पर सैंटा हर बच्चे के घर आते हैं।इंडिया-पाकिस्तान मैच साथ बैठ पॉपकॉर्न खाते हुए देखे जाते हैं और श्रीलंका की जीत पर भी उतने ही पटाख़े फूटते हैं जितना इंडिया की जीत पर।
वाह दीदी!ये जलेबियाँ तो बिल्कुल इंडिया जैसी हैं…..कहाँ से मंगाई? पूर्णा वो अकरम साहब लेकर आये हैं कोई नई दुकान खुली है।
अविनाश तुम अकरम साहब से पता पूछ लो उस जलेबी की दुकान का और नंबर हो तो वो भी ले लेना…..शायद होम डिलीवरी करता हो….खुश होती हुई पूर्णा ने कहा था….अब तो जलेबियाँ अक्सर मिलेंगी..…
उन जलेबियों का स्वाद कई दिनों तक पूर्णा की जिह्वा पर रहा था…फिर उन जलेबियों की क्रेविंग….ऑफिस से ही अविनाश को फ़ोन लगा कर जलेबियों की फरमाइश कर डाली थी उसने टाइम पर पहुँचने की ताक़ीद के साथ।दरअसल वीकडेज़ में जलेबी की दुकान बस शाम चार बजे से सात बजे तक ही खुली रहती है ऐसा अकरम साहब ने बताया था और पूर्णा कोई चांस नही लेना चाहती थी।
वैसे चांस तो अविनाश भी नही लेना चाहता था,जलेबी नहीं मिली तो सदा की मूडी पूर्णा को झेलना बड़ा मुश्किल होता है..खैर वो साढ़े पाँच बजे ही दुकान पर पहुँच गया था…पहुँच तो कुछ पहले ही जाता मगर दुकान ढूंढ़ने में कुछ देर हो गई….दरअसल दुकान मुख्य सड़क से हट कर एक पतली संकरी अंधेरी सी गली में थोड़ा अंदर जाकर है, जहां गाड़ियाँ नही जा सकतीं।दुकान की लोकेशन देख उसका दिमाग़ थोड़ा ठनका तो था लेकिन पूर्णा का ख़्याल आते ही बिना राग द्वेष के मिशन जलेबी पर अग्रसर होता गया, दुकान पर पहुँच सारे पूर्वाग्रह तो ख़त्म हो गए थे लेकिन लंबी कतार देख सिर जरूर चकरा गया था….एकदम साफ सुथरी दुकान करीने से लगीं बेंच और एक छोटा सा मेनू…..जलेबी….पकौड़े….और चाय।
धैर्यपूर्वक कतार में खड़े खड़े अविनाश दुकान के मालिक पर गौर कर रहा था, चौबीस पच्चीस की उमर होगी,अपने देसी हलवाइयों की गोल मोल छवि के बिल्कुल उलट गोरा चिट्टा, पतला दुबला बड़े सलीके से बातें करने वाला। उसकी दुकान पर हर तबक़े के ग्राहक खड़े हुए थे….
जलेबी की दुकान क़लाम साहब पाकिस्तानी की है। इंडिया से दूर इंडियन रेस्टोरेंट में खाते समय भी अपने देश की याद आती है खास कर अपनी मिठाईयाँ, रसगुल्ले,गुलाबजामुन,घेवर बर्फी हलवे सब शिद्दत से मिस किये जाते हैं लेकिन अब जलेबी को कोई मिस नही करता क़लाम साहब के आने के बाद। अजब है….दो देश दो संस्कृति एक ही स्वाद एक सी मिठास!
पाकिस्तानी बांग्लादेशी मजदूरों से लेकर बड़े ओहदेदारों तक देसी विदेशी सभी….वो सबको बड़ी फुर्ती से निपटाता जा रहा था। क़तार धीरे धीरे आगे बढ़ी तो अविनाश ने देखा कि दुकान का मालिक अपना काम करते हुए बार बार उसकी तरफ़ एक नज़र देख लेता, नज़रें मिलतीं और फिर वो काम में लग जाता।जैसे ही अविनाश काउंटर पर पहुँचा वो बड़े तपाक से बोला अस्सलाम वालेकूँ भाई, मुल्क़ में सब ख़ैरियत!तिस पर मुस्कुरा कर अविनाश ने कहा कि जी हाँ आपके पड़ोस के मुल्क़ में सब ख़ैरियत !उस दुकान वाले ने शायद अविनाश की गोरी चिट्टी काया,मूछें और पठानी कुर्ता देख हमवतन समझ लिया था।फिर उसने पहले की ही तरह चेहरे की मुस्कान बरकरार रखते हुए कहा तो क्या हुआ? हैं तो भाई ही!बताएँ क्या बांधना है…अविनाश ने जलेबियों की फ़रमाइश की जिसे उसने फ़ौरन पूरी की।जब अविनाश ने पैसे पूछे तो वो मुस्कुराते हुए बोला आप आज पहली दफा तशरीफ़ लाये है और हमने आप को भाई कहा है आज तो पैसे नही ले सकूँगा… आप अगली दफ़ा बेशक दे दें। उसकी इस बात में इतना अपनापन था कि अविनाश उसे मना नहीं कर सका था।चलते चलते उसने उसका नाम पूछा था कि भाई को किस नाम बुलाऊँ तिस पर उसने फिर से मुस्कुराते हुए क़लाम बताया था।
अविनाश लौट आया था पूर्णा के लिए जलेबियाँ लेकर साथ में एक मीठा एहसास भी साथ लाया था।
उसके बाद जब भी अविनाश “क़लाम साहब” (इसी नाम से सम्बोधित करता था अविनाश उसे,पूछने पर अविनाश ने कहा था कि क़लाम साहब हमारे देश की बहुत महान शख्सियत हैं और उनके नाम को इतनी इज़्ज़त तो बनती है) की दुकान पर जाता वो कुछ न कुछ बहाने कर जलेबियों के पैसे नहीं लेता,कभी वो भाभी जान के दुकान पर शिरकत की खुशी का बहाना बनाता कभी ईद के आमद की खुशी का बहाना कभी भतीजे के लिए क़लाम चचा की सौगात।उसके पैसे नही लेने के बहाने उसकी जलेबियों की तरह ही मीठे होते थे जिन्हें मना करना नामुमकिन होता था…. आमतौर पर अगर कोई ऐसे बिना पैसे लिए सामान दे तो शायद ही कोई उसकी दुकान पर लौट के दोबारा जाए… खरीदने जाते हैं कोई खैरात थोड़े न लेने जाते हैं लेकिन क़लाम की बातों और बर्ताव में एक ऐसा एहतराम होता एक ऐसा अपनापन जिसे नकारना अविनाश के दिल को गवारा नहीं था।
इंडिया से दूर इंडियन रेस्टोरेंट में खाते समय भी अपने देश की याद आती है खास कर अपनी मिठाईयाँ, रसगुल्ले,गुलाबजामुन,घेवर बर्फी हलवे सब शिद्दत से मिस किये जाते हैं लेकिन अब जलेबी को कोई मिस नही करता क़लाम साहब के आने के बाद। अजब है….दो देश दो संस्कृति एक ही स्वाद एक सी मिठास!
रविवार को छोड़ क़लाम साहब की दुकान बस शाम चार से सात तक ही खुली रहती थी। पूर्णा थोड़ी उदास हो गई थी कि पंद्रह अगस्त को अपनी नेशनल मिठाई जलेबियों का इंतज़ार शाम तक करना पड़ेगा, बस ये तसल्ली थी के मिलेंगी तो सही नही तो कितने साल यूँ ही जलेबियों की याद में ही निकल गए परदेस में। लेकिन पंद्रह अगस्त के दिन तड़के ही क़लाम का फ़ोन आ गया था….भाई जान आज़ादी मुबारक! आज सुबह ही दुकान लगाई है जलेबियाँ ले जाएं भतीजे का मुँह मीठा कर करवाएँ।उसके मुँह से आज़ादी की शुभकामनाएं उसकी जलेबियों से कहीं मीठी थीं। मन भी मीठा कर दिया था उसने सुबह सुबह। क़लाम साहब की जलेबियाँ हमारे घर गाहेबगाहे आती ही रहतीं हैं। उसकी जलेबियाँ खा कर एक साथ कई एहसास से भर जाती है पूर्णा पहला एहसास हमेशा अपनेपन की मिठास का होता है….लेकिन दूसरा एहसास उसके ज़ेहन को सियासत के खेल पर सोचने को मजबूर कर देता है….जितनी नफ़रत जितना ग़ुबार दिखता है….क्या सच में दिलों में इतनी नफ़रत भरी है!…. एक तरफ टीवी चैनलों पर चलती बहस, दोनो तरफ के नेताओं के भड़काऊ बयान, जंग के ऐलान! दूसरी तरफ ऐसा भाईचारा….शायद मिट्टी से दूरी कभी कभी चीजों को निष्पक्षता से देखने की सहूलियत देती है।
बहरहाल इस लॉक डाउन वाली आज़ादी में भी क़लाम साहब भूले नहीं हैं और बकायदा अपने घर से गरमा गरम जलेबियाँ बना भतीजे के लिए मुबारकबाद सहित पहुँचा गए हैं।
©Toshi Jyotsna