पिछले वर्ष ने माँ को एक एहसास में तब्दील कर दिया…और उस एहसास की रौ में बह यादों में सहेजे हुए पल जैसे खुली किताब के पन्नों की मानिंद एक के बाद एक आंखों के सामने से गुजरते चले गए।
आंखे नम कर उसे याद करूं या उसके और मेरे अनगिनत इनसाइड जोक्स याद कर खिलखिला कर हँस पडूँ….कहाँ से शुरू करूँ…
माँ किसी दिन की मोहताज़ नहीं लेकिन विदेशों में मई महीने के दूसरे रविवार को मातृ दिवस की तरह मनाने की रीति है,अब तो अपने भारत में भी बड़े जोरों शोरों मनाया जाने लगा है यह त्योहार। इस लिहाजे इस वर्ष का मदर्स डे ८ मई को दुनिया भर में मनाया गया ।
अंदाज़ा मदर्स डे के अखबारों के फ्रंट पेज के विज्ञापनों को देख कर ही लगाया जा सकता है ख़ैर…..आज महीनों बाद क़लम उठाने का मुद्दा ये नहीं!
आज इक याद ने लिखने पर मजबूर किया।
माँ…
धरती पर क़दम रखने के बाद बच्चे के मुख से पहला सार्थक शब्द प्रायः माँ ही निकलता है और वही शब्द कमोबेश ताउम्र हमारे जीवन की धूप में छांव बन मौजूद रहता है। पिछले वर्ष ने माँ को एक एहसास में तब्दील कर दिया…और उस एहसास की रौ में बह यादों में सहेजे हुए पल जैसे खुली किताब के पन्नों की मानिंद एक के बाद एक आंखों के सामने से गुजरते चले गए।
आंखे नम कर उसे याद करूं या उसके और मेरे अनगिनत इनसाइड जोक्स याद कर खिलखिला कर हँस पडूँ….कहाँ से शुरू करूँ…
कठोर शासन, अतुलनीय अनुराग और जीवन्तता का अजब मेल था उसका अनोखा व्यक्तित्व। अखरोट जैसा! पॉजिटिविटी यानी सकारात्मकता की पराकाष्ठा , आज की पीढ़ी जैसी प्रोग्रेसिव सोच और ऊर्जा से भरी हुई। हम सभी भाई बहनों का भाषा सौष्ठव माँ की ही देन है। माँ की सबसे खास बात थी उसकी अडॉप्टेबिलिटी…कॉलेज वाली माँ और घर वाली माँ दोनों पोल्स अपार्ट! घर आते ही जैसे उसकी कड़क सूती साड़ी करीने से तह कर आलमारी में सज जाती ठीक वैसे ही अपने विदुषी रूप को भी कहीं करीने से अलमारी की दराज़ में धर, माथे पर पल्लू डाल घर की बहुरानी बन, जुट जाना आज भी सोचने पर मजबूर करता है कि कैसे ऐसा ईज़ ऑफ ट्रांसफॉर्मेशन सम्भव है! महाकवि निराला के साहित्य में भक्तितत्व का अनुसंधान करने वाली, महादेवी के साहित्य पर सम्भाषण करने वाली पल भर में आटे- दाल के भाव मे ऐसे जुट जाती मानो लिखने पढ़ने से दूर दूर तक कोई लेना देना ही न हो।
कठोर शासन, अतुलनीय अनुराग और जीवन्तता का अजब मेल था उसका अनोखा व्यक्तित्व। अखरोट जैसा! पॉजिटिविटी यानी सकारात्मकता की पराकाष्ठा
माँ के सुरीले कंठ से निकले श्लोकों के अलार्म से हमारी सुबह होती….संगीत और सुर की पहचान माँ ने घुट्टी में दी। कलम की धनी माँ रसोई में अन्नपुर्णा सरीखी थीं, हाथों में इतना रस कि बखान करना मुश्किल! और चुटकियों में थाली भर व्यंजन बना लेने का हुनर!
मगर आज मुद्दा माँ के गुणों का बखान भी नही है….आज तो बस उसे याद करना है और बताना है कि उसके होने और न होने के बीच का फ़र्क यही है कि बेतकल्लुफी से कभी भी फ़ोन उठा के मन की भड़ास अब नहीं निकलती। मेरी आवाज़ सुनते ही मेरे मन मिज़ाज़ को समझने वाला अब कोई नहीं। मेरी फिक्र में अपनी टूटती सांसों की डोर को मेरे सम्भलने तक सहेज के रखने वाली मेरी माँ ने जाते हुए भी हमेशा साथ होने का वादा किया था । अपने रतजगों में आज भी उसके स्नेहिल हाथों की थपकी महसूसती हूँ मैं। जाते जाते भी काँपते हाथों से निवाला खिलाना नही छोड़ा उसने।ख्याल रखने का वादा जाते जाते भी कर गई….यूँ तो सब उसका ही दिया हुआ है लेकिन उसकी दी हुई घड़ी, उसकी आखिरी निशानी हमेशा जैसे मुझसे कहती रहती है कि समय नही रुकता….ये दौर भी गुज़र जाएगा….ये दौर भी गुज़र जाएगा।