जब चित्र बनते हैं शब्द: मनीषा झा की मधुबनी यात्रा - pravasisamwad
November 30, 2025
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जब चित्र बनते हैं शब्द: मनीषा झा की मधुबनी यात्रा

“एक मधुबनी चित्रकार के लिए चित्र बनाना, लिखने जैसा होता है,” ऐसा मानती हैं भारत की प्रमुख मधुबनी कलाकारों में से एक मनीषा झा। उनके अनुसार मधुबनी कलाकार कभी अपने काम को ‘पेंटिंग’ नहीं कहते, बल्कि ‘लिखना’ कहते हैं। इसी सोच को ध्यान में रखते हुए उन्होंने अपने नई दिल्ली स्थित प्रदर्शनी का नाम लिखिया रखा है। इस प्रदर्शनी में मनीषा झा ने क्यूरेटर के रूप में 100 से अधिक प्रमुख मधुबनी कलाकारों को एक मंच पर लाया है, और स्वयं भी हर रचना में अपनी कलात्मक भागीदारी दी है। बिहार के मिथिला क्षेत्र से आने वाली मधुबनी कला को सामुदायिक कला के रूप में जाना जाता है।

प्रदर्शनी को पाँच भागों में बाँटा गया है। इसमें पौराणिक कथाओं के साथ-साथ आधुनिक विषयों को भी शामिल किया गया है। कलाकृतियों में रामायण और महाभारत के प्रसंगों से लेकर मदर टेरेसा और इंदिरा गांधी के चित्र भी देखने को मिलते हैं। पौधों, पशुओं और प्राकृतिक आकृतियों की सुंदर ज्यामितीय डिज़ाइनें भी कैनवास पर उभरी हुई दिखाई देती हैं। इनमें प्राकृतिक रंगों का प्रयोग और सूक्ष्म रेखांकन एक लयबद्ध सौंदर्य रचते हैं।

मनीषा झा बताती हैं कि इन कलाकृतियों को पूरा करने में लगभग 10 से 14 वर्ष का समय लगा, विशेषकर मधुश्रावणी श्रृंखला को तैयार करने में, जो मानसून के दौरान गाए जाने वाले लोकगीतों पर आधारित है। पहली बार इन मौखिक परंपराओं को कैनवास पर लिखित रूप में दर्शाया गया है। ये गीत नई विवाहित महिलाओं के लिए विशेष महत्व रखते हैं, क्योंकि इनके माध्यम से उन्हें वैवाहिक जीवन के कई पहलुओं के बारे में बताया जाता है। प्रदर्शनी में दिखाया गया एक वीडियो इस परंपरा की झलक भी प्रस्तुत करता है।

पहले मधुबनी चित्रकला महिलाओं द्वारा घरों की मिट्टी की दीवारों पर बनाई जाती थी। समय के साथ यह कला महिला सशक्तिकरण का प्रतीक बन गई। गोडावरी दत्त, उर्मिला देवी, बऊआ देवी और महासुंदरी देवी जैसी कलाकारों ने मधुबनी कला को अंतरराष्ट्रीय पहचान दिलाई। इस कला ने कई महिलाओं की आर्थिक स्थिति सुधारी, भले ही वे औपचारिक शिक्षा से वंचित रही हों। कुछ महिलाएँ अपने परिवार से दूर कर दी गई थीं, पर कला ने उन्हें आत्मनिर्भर बनाया। मनीषा झा कहती हैं कि जब वे कलाकारों के घरों के बाहर राष्ट्रीय पुरस्कार, राज्य पुरस्कार और पद्मश्री जैसे सम्मान अंकित देखते हुए गुजरती हैं, तो गर्व से भर उठती हैं। स्वयं उन्हें 2014 में मिथिला पेंटिंग के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त हुआ।

मिथिला की महिलाओं के लिए चित्रकारी केवल कला नहीं, बल्कि जीवन का हिस्सा है। महिलाएँ एक साथ बैठकर, लोकगीत गाते हुए चित्र बनाती हैं। झा बताती हैं कि वे चाहती हैं कि लोग यह समझें कि यह कला केवल किसी एक कलाकार की नहीं, बल्कि सामूहिक प्रयास की उपज है—एक ऐसा उत्सव जहाँ महिलाएँ मिलकर अपनी संस्कृति और परंपरा को जीवित रखती हैं।

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