2007 में जब मेरी मुलाकात समकालीन भारतीय कलाकार रमेश गोरजला से हुई, तब कला जगत में उनके नाम की खूब चर्चा थी। संग्राहक उनकी कलाकृतियाँ पाने को उत्सुक थे, क्योंकि वे प्राचीन कलमकारी परंपरा को आधुनिक दृष्टि के साथ जोड़ने की अद्भुत क्षमता रखते थे। बढ़ती प्रसिद्धि के पीछे एक अत्यंत शांत, विनम्र और सरल स्वभाव का कलाकार था, जिसकी आत्मविश्वास भरी दुनिया केवल उसकी कला में बसती थी।
वर्षों के साथ उनके साथ काम करते हुए मैंने न केवल उनकी कला शैली के विकास को देखा, बल्कि उनकी सच्चाई और जड़ों से जुड़े रहने की क्षमता को भी महसूस किया। गोरजला अपनी परंपरा में दृढ़ता से जुड़े रहते हुए भी लगातार प्रयोग करते हैं तकनीक, पैमाना और माध्यम सभी में परंतु कलमकारी की आत्मा को हमेशा जीवित रखते हैं।
यह लेख उनकी कलात्मक यात्रा की एक आत्मीय झलक है, जिसे पौराणिक कथाओं, स्मृतियों और उनके अटूट समर्पण ने आकार दिया है।
आंध्र प्रदेश के एक छोटे से गाँव में पले-बढ़े गोरजला की कला से पहचान औपचारिक शिक्षा से नहीं, बल्कि लोक परंपराओं से हुई। नौवीं कक्षा में उन्होंने अपने मित्र के परिवार के लोक कलाकारों को देखकर चित्रकारी के प्रति आकर्षण महसूस किया।
“मेरे पिता ने मेरे मामा बालाजी तीर्थम से संपर्क किया, जिन्होंने मुझे कलमकारी ड्रॉइंग सिखाई,” वे याद करते हैं। “मेरे दादाजी का भी कलमकारी से कुछ संबंध था, जबकि मेरे माता-पिता वेणुगिरी साड़ियों के बुनकर थे।”
हाथ से बनाए जाने वाले शिल्प, रंग, रूपांकनों और कहानियों से जुड़ी यह विरासत उनके भीतर गहराई से बस गई। किशोरावस्था से ही वे पारंपरिक कलमकारी में नए प्रयोग जोड़ने की इच्छा रखते थे।
कला को पूरी तरह अपनाने से पहले उन्होंने बी.कॉम में दाखिला लिया। “तब मुझे समझ नहीं थी,” वे हँसते हुए कहते हैं। लेकिन शीघ्र ही उन्होंने महसूस किया कि मन केवल चित्रकारी में रमा रहता है, और उन्होंने पढ़ाई छोड़ दी।
किसी ने बताया कि कला की पढ़ाई कॉलेज में भी की जा सकती है। इसी ने उनका मार्ग बदल दिया। वे जेएनटीयू, हैदराबाद पहुँचे, जहाँ उनकी कलात्मक दृष्टि ने एक नया मोड़ लिया।
कला विद्यालय ने नई दुनिया खोली। परंपरागत कलमकारी में वनस्पति रंगों का उपयोग होता है, पर जेएनटीयू में उन्हें पहली बार ऐक्रेलिक रंगों से परिचित कराया गया।
सबसे महत्वपूर्ण शिक्षा उन्हें स्टैनली सुरेश से मिली, जिन्होंने छात्रों को ‘मन’ की शक्ति से सृजन करना सिखाया। “पूरे एक वर्ष तक हम केवल मन से हर हफ्ते एक कला-कृति बनाते थे,” रमेश बताते हैं।
इस अभ्यास ने उन्हें आत्मविश्लेषण, विचारों की गहराई और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता सिखाई जो बाद में उनकी समकालीन कला का आधार बनी।
हैदराबाद के वरिष्ठ कलाकार समुदाय ने उनके करियर को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। लक्ष्मण अले, फवाद तमकनत, स्टैनली सुरेश और हनुमंथा राव जैसे कलाकार उनके अनौपचारिक मार्गदर्शक बने।
महान कलाकारों विशेषकर एम. एफ. हुसैन को काम करते देख उन्होंने सीखा कि कला में ‘विचार’ का महत्व तकनीक जितना ही बड़ा है।
लक्ष्मण अले ने उनकी कलाकृतियों को मुंबई के गैलरिस्टों तक पहुँचाया। फवाद तमकनत ने उनके काम को हार्मनी शो के लिए चुना, जिससे रमेश पहली बार हवाई जहाज़ से मुंबई पहुँचे। 2003 में उन्हें मुंबई की एक प्रतिष्ठित गैलरी में दो-कलाकार प्रदर्शनी मिली, जहाँ संगीता जिंदल ने उनका पहला बड़ा कैनवास खरीदा।

लगभग दो दशकों बाद भी रमेश की कला भारतीय पौराणिक कथाओं विशेषकर कृष्ण, विष्णु और हनुमान में गहराई से निहित है। फिर भी उनकी कला कभी दोहरावपूर्ण नहीं लगती।
“कहानियाँ पुरानी हैं, पर काम करते-करते नए विचार आते रहते हैं,” वे कहते हैं। उनकी बारीकी, संरचना और शारीरिक रेखांकन पर ध्यान हर कैनवास को विशिष्ट बनाता है।
दिलचस्प बात यह है कि छोटे कैनवास उन्हें बड़े कैनवासों से अधिक चुनौतीपूर्ण लगते हैं। उनका अब तक का सबसे बड़ा कार्य 15 x 8 फीट का है, जिसमें केवल विष्णु का एक विशालकाय रूप है।
हर पेंटिंग एक लंबी और सूक्ष्म यात्रा होती है—
- कैनवास की तैयारी
- हल्की चारकोल स्केच
- बड़े रूपों के भीतर मुक्तहस्त ड्रॉइंग
- रोटरिंग पेन से सूक्ष्म कथाओं का चित्रण
- रंगों की परतें और पृष्ठभूमि भरना
- अंतिम शेडिंग
इसका परिणाम ऐसे बहुस्तरीय कैनवास, जहाँ एक देवता के भीतर असंख्य कहानियाँ बसती हैं—गोरजला की खास पहचान है।
उन्होंने कैनवास के अलावा बैगों पर और यहाँ तक कि एक कार पर भी पेंटिंग की है, जिनमें पौराणिक कथाएँ नई आकृतियाँ लेती हैं।
वे विशेष रूप से ए. रामचंद्रन के कार्यों से प्रभावित हैं। इसके अलावा लक्ष्मा गौड़ और एम. एफ. हुसैन भी उनके पसंदीदा कलाकारों में हैं।
युवा कलाकारों के लिए सलाह
“ऐसा कुछ बनाइए जो केवल आपका हो,” रमेश कहते हैं।
वे जोर देते हैं कि आपकी कला आपकी पहचान बननी चाहिए, स्वयं की खोज से उत्पन्न, पर दुनिया की कला-चर्चा से भी जुड़ी हुई।
“इसे अलग-थलग रहकर नहीं किया जा सकता।”
अंतरराष्ट्रीय बाजार में सफलता और सम्मान के बावजूद गोरजला अत्यंत विनम्र हैं।
“मैंने हमेशा ईमानदारी से काम किया है,” वे कहते हैं। “मैंने कभी प्रसिद्धि के बारे में नहीं सोचा।”
उनका यही सादापन, प्रयोगधर्मिता और समर्पण उन्हें कला जगत में विशिष्ट बनाता है।
उनके स्टूडियो में उनसे दोबारा मिलकर यह अहसास गहरा हुआ कि उनकी कला क्यों इतनी प्रभावशाली है। उनकी पेंटिंग्स केवल चित्र नहीं वे पौराणिक कथाओं, स्मृतियों और परंपरा की जीवंत विरासत हैं, जिन्हें समकालीन सौंदर्य के साथ गढ़ा गया है।
रमेश गोरजला का सफर यह साबित करता है कि जब कलाकार अपनी जड़ों और कल्पना से सच्चा रहता है, तब उसका काम समय की सीमाओं से परे हो जाता है।




