Saturday, May 4, 2024
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हिजाब का ज़िहाद ईरान और भारत

परिपेक्ष्य चाहे कुछ भी हो लेकिन जब किसी भी देश का सक्षम प्रशासन, देश की जनता के पहनावे में दखल देने लग जाये तो प्रतिरोध अवश्यम्भावी है, फिर चाहे वो ईरान जैसा इस्लामिक देश हो या हमारे भारत जैसा धर्म निरपेक्ष्य राष्ट्र। पहनावे और खान पान की बंदिशें प्रायः उल्लंघन और विरोध का कारण बनती हैं और ऐसे प्रतिबन्ध लोकतंत्र में अराजकता का माहौल पैदा करते हैं। इसे चाहे बिहार की शराब बंदी के परिपेक्ष्य में देखें या कर्नाटका के जूनियर कॉलेज में हिजाब बंदी का प्रकरण या फिर ईरान का हिजाब आंदोलन।

क्या है हिज़ाब !

विकिपीडिया के अनुसार “हिजाब शरीर के कुछ अंगों को ढकने या छुपाने के लिए मुस्लिम महिलाएं और लड़कियां जिस परिधान को प्रयोग में लाती हैं उसे आम भाषा में हिजाब कहते हैं” , मुसलमानों में हैडस्कार्फ और नक़ाब के मिले जुले रूप का ये आधुनिक परिधान है जिसे मुस्लिम महिलाएं बाहर जाने पर पहनती हैं। हिजाब का शाब्दिक अर्थ है आड़,ओट या परदा। यहाँ अलग अलग इस्लामिक देशों के मुसलमानों ने इस्लामी परदे के नियम के लिए अलग-अलग प्रथाओं को अपनाया है। हिजाब परिधान की विभिन्न देशों में अलग-अलग कानूनी और सांस्कृतिक स्थिति है। एक ओर जहाँ अफ़ग़ानिस्तान और ईरान में महिलाओं के लिए हिजाब अनिवार्य है, वहीं फ्रांस, बेल्जियम, में पूर्णतः एवं नीदरलैंड्स, नॉर्वे तथा आस्ट्रिया में शिक्षण संस्थानों में हिजाब प्रतिबंधित है। इसके उलट तुर्की में हिजाब पर लगे प्रतिबंध हटाये गये हैं। हिजाब के सार्वजनिक प्रयोग पर बहस लगातार हो रही है और अभी फिलहाल भारत में भी हिजाब के प्रयोग पर बहस जारी है और मामला न्यायालय में विचाराधीन है।

हिजाब की शुरुआत : धर्म नहीं जरूरत

विकिपीडिया और सीएनएन के रिसर्च के मुताबिक हिजाब का इस्तमाल सर्वप्रथम मेसोपोटामिया सभ्यता से शुरू हुआ था और यह धार्मिक कारणों से नहीं अपितु जलवायु जन्य कारणों से इस्तमाल में लाया जाता था। उस समय इसका इस्तमाल तेज़ धूप, धूल और बारिश से सर को सुरक्षित रखने के लिए किया जाता था। हिजाब का ज़िक्र १३वीं शताब्दी में लिखे गए असीरियन लेखों में भी मिलता है। इसके अतिरिक्त लेखक फेगेह शिराजी की किताब ‘द वेल अनवेल्ड :द हिजाब इन मॉडर्न कल्चर’ में लिखा है कि हिजाब का इस्तमाल अरब देशों की जलवायु की वजह से इस्लाम की शुरुआत से पहले ही प्रचलन में था, तेज़ गर्मी से बचने के लिए इसका इस्तमाल किया जाता था न की धार्मिक कारणवश। उस वक़्त हिजाब का इस्तमाल सम्पन्न तथा अभिजात्य वर्ग की महिलाएं किया करती थीं। ग़रीब तबके की औरतों तथा वेश्याओं को हिजाब पहनने पर दण्डित किया जाता था। समय के साथ हिजाब स्टाइलिश होता गया और जरूरत के साथ साथ फ़ैशन स्टेटमेंट भी बन गया और इसका प्रचार प्रसार आसपास के इस्लामिक देशों में होने लगा और आगे चल कर इसे धर्म से जोड़ते हुए विधवाओं, बच्चियों और महिलाओं के लिए अनिवार्य कर दिया गया। फिर आगे चल कर हिजाब पर कानून बनने लगे।

परदे का कानून

इन दिनों इर्रान में चल रहे देशव्यापी ज़िहाद के पीछे वहां की सरकार द्वारा महिलाओं पर जबरन थोपा गया हिजाब कानून है, जिसके तहत वहां की महिलाओं की हिजाब के बगैर सार्वजानिक उपस्थिति एक दंडनीय अपराध है। ईरान में महिलाओं का बिना हिजाब द्वारा सर ढके घर से बाहर निकलना कानूनन जुर्म है, इसके साथ ही उन्हें ढीले ढाले सर से पांव तक के वस्त्र पहन कर ही घर की दहलीज़ लांघना होगा ऐसा वहां का क़ानून कहता है। इतना ही नहीं, इस क़ानून की रक्षा के लिए बाक़ायदा मोरल पुलिस का गठन भी किया गया है जो की देश भर में इस कानून का सख्ती से पालन हो रहा है या नहीं इस पर नज़र रखती है तथा गुनहगारों को सजा देने का हक़ भी रखती है।

ईरान में हिजाब के कानून का इतिहास

ईरान की मॉडर्न हिस्ट्री में हिजाब का एक महत्वपूर्ण स्थान है, शायद यही कारण है की सरकार इस आंदोलन को सिरे से नकारने पर लगी हुई है। अगर पीछे के इतिहास को देखें तो १९७९ के तख्तापलट आंदोलन से पहले ईरान में हिजाब पर प्रतिबन्ध था और इसको लेकर पुरानी पीढ़ी तथा कट्टरपंथी इस्लामिक मदरसे अपना विरोध जताते रहते थे।
क्रांति से पहले, जब ईरान पर एक धर्मनिरपेक्ष राजा मोहम्मद रजा पहलवी का शासन था, तो कई ईरानी महिलाएं सक्रिय रूप से हिजाब पहनती थीं।ऐसा करना उनकी निजी पसंद थी, चाहे वह परंपरा, पहचान, धार्मिक अभिव्यक्ति या पारिवारिक दबाव के कारण हो,और इसपर प्रशासन का कोई दवाब नहीं था। प्रसिद्ध ईरानी कवि और पत्रकार असीह अमीनी का कहना है कि, आज मुख्य समस्या यह है कि महिलाओं को पर्दा करने के लिए मजबूर किया जाता है, यह इंगित करते हुए कि उन्हें इस्लामी ड्रेस कोड की अवहेलना करने के लिए कोड़े या कैद किया जा सकता है। १९७९ में सत्तारूढ़ पार्टी के सर्वोच्च नेता अयातुल्ला खुमैनी ने हिजाब को महिलाओं की सार्वजानिक उपस्थिति के लिए अनिवार्य करने पर बल दिया और बाकायदा कानून बनाने की पेशकश की,जिसके तहत घर से बाहर ढीले वस्त्र और सर पर हिजाब महिलाओं के लिए अनिवार्य कर दिए जाने की बात थी । सरकार ने इस नीति को सही ठहराने के लिए कुरान (इस्लाम की पवित्र पुस्तक) और हदीस (पैगंबर मोहम्मद की बातें) के कुछ हिस्सों को उल्लेखित किया, हालांकि मुस्लिम धार्मिक लेखन पूरी तरह से स्पष्ट नहीं है कि महिलाओं को पर्दा करना चाहिए या नहीं। जिसका अनिवार्य प्रतिरोध लगभग तत्काल ही शुरू हो गया था जिसके परिणाम स्वरूप १९७९ में भी उग्र विरोध प्रदर्शन हुए, जिसके बाद अयातुल्ला खुमैनी सरकार ने कहा कि उनकी टिप्पणियां केवल एक सिफारिश थीं। लेकिन यह १९८३ में कानून बन गया।
उसके बाद से मौजूदा समय तक विरोध और संघर्ष चलता ही रहा है।

 

दरअसल २२ वर्षीय माहसा अमीनी ईरानी कूर्द कन्या कीमोरल पुलिसगश्तइरशाद द्वारा हिजाब नहीं पहनने के जुर्म में हिरासत में लिए जाने और हिरासत में ही यातना से हुई उनकी मौत की खबर के वॉयरल हो जाने से सम्पूर्ण ईरान आक्रोश में गया और जो इक्का दुक्का विरोध की घटनाएं देखने को मिलती थीं एकदम से आंदोलन के रूप में सड़कों पर उतर आया।

 

हिजाब और ईरान: आज का सन्दर्भ

दशकों से, महिलाओं के ढंके हुए सिरों ने राज्य के व्यापक अधिकार को मूर्त रूप दिया है। लेकिन अब, ईरान की युवा महिलाएं खुले बालों और नंगे सरों के साथ शासन के अधिकार को सवालों के घेरे में ला रही हैं। इस कड़ी में १४ सितम्बर २०२२ को घटी घटना ने आग में घी डालने का काम कर दिया। जो विरोध यदा कदा इधर उधर देखने को मिलता था संगठित होकर सड़कों पर उतर आया है।एक मासूम की मौत के बाद और भी जाने चली गईं और कितने लापता हैं।
दरअसल २२ वर्षीय माहसा अमीनी ईरानी कूर्द कन्या की ‘मोरल पुलिस’ गश्त-ए-इरशाद द्वारा हिजाब नहीं पहनने के जुर्म में हिरासत में लिए जाने और हिरासत में ही यातना से हुई उनकी मौत की खबर के वॉयरल हो जाने से सम्पूर्ण ईरान आक्रोश में आ गया और जो इक्का दुक्का विरोध की घटनाएं देखने को मिलती थीं एकदम से आंदोलन के रूप में सड़कों पर उतर आया।
यहाँ ग़ौरतलब यह है कि ऐसा नहीं था कि माहसा अमीनी ने हिजाब नहीं पहन रखा था बल्कि उन्होंने हिजाब “उनुचित” तरीके से पहन रक्खा था, उनका कसूर बस इतना ही था कि उनके सर के आगे के हिस्से के बाल हिजाब से बाहर झाँक रहे थे और इतनी सी बात के लिए चश्मदीदों और रिश्तेदारों के मुताबिक उन्हें सरेआम बार बार सर पर चोट पहुंचाई गई, परिणामस्वरूप वो कोमा में चली गईं और तीन दिनों तक ज़िन्दगी और मौत से जूझती हुई माहसा अमीनी ने १६ सितम्बर २०२२ को हस्पताल में दम तोड़ दिया। इतनी सी बात पर मौत की सजा, या हिरासत में लिया जाना, साफ़ साफ़ हुकूमत की तानाशाही मानसिकता को दर्शाता है। सोचने वाली बात है की क्या वाकई ‘हिजाब’, इंसान की जिंदगी से ज्यादा अहमियत रखता है? क्या हुक्मरानो के लिए आम जनता और उनकी भावनाओं की कोई कीमत नहीं? क्या किसी देश का कानून उस देश की अवाम की भावनाओ से ऊपर होना चाहिए ? क्या वस्त्रों का चयन एक निजी चयन नहीं होना चाहिए?

मौत पर सियासत

अमीनी की मौत से पल्ला झाड़ते हुए, सरकार ने सीधे तौर पर कह दिया कि उनकी मौत दिल का दौरा पड़ने की वजह से हुई है न की हिरासत में उत्पीड़न के कारण। बात वैसे ही रफा दफा हो जाती अगर महिला अधिकारों में विशेषज्ञता रखने वाली ईरानी पत्रकार नीलुफर हमेदी,ने माहसा का वीडियो ट्विटर पर वायरल नहीं किया होता (जिसमे उन्होंने तेहरान के एक अस्पताल में एक-दूसरे को गले लगाते हुए माहसा अमिनी के माता-पिता की तस्वीर ली, जहां उनकी बेटी कोमा में पड़ी थी)
हमीदी ने १६ सितंबर को ट्विटर पर जो तस्वीर पोस्ट की थी, ने दुनिया को पहला संकेत दिया कि २२ वर्षीय अमिनी के साथ सब कुछ ठीक नहीं है,और उसी दिन बाद में अमिनी की मृत्यु के समाचार ने ईरान भर में बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शनों की एक स्वतः स्फूर्त लहर चल पड़ी जो सरकारी कार्रवाई और दमन के बावजूद देश के विभिन्न हिस्सों में लगभग पांच सप्ताह बाद अब भी जारी है। पत्रकार नीलोफर हमेदी को भी बिना किसी जुर्म के गिरफ्तार कर लिया गया और उनका ट्विटर अकाउंट भी स्थगित कर दिया गया। लेकिन विरोध की लहर रुकने के बजाय बढ़ती ही चली गई। १९७९ की क्रांति के बाद से इस्लामी गणराज्य के लिए यह विरोध सबसे बड़ी चुनौतियों में से एक है। इसका सामना करने के लिए अधिकारियों ने इस सार्वजनिक प्रदर्शन को दबाने के लिए बल का इस्तेमाल किया है और इस रिपोर्ट के लिखे जाने तक, HRANA के मुताबिक, २४४ निर्दोष नागरिकों की मौत हो चुकी है जिसमे ३२ नाबालिग स्कूली बच्चे भी शामिल हैं। HRANA की मानें तो अब तक १२,५१६ लोगों को इस सिलसिले में हिरासत में लिया गया है। ईरान जल रहा था लेकिन ईरान के शीर्ष राजनेताओं ने अंतर्राष्ट्रीय पटल पर इसका सिरे से खंडन ही नहीं किया बल्कि इसको छिपाने की कोशिश भी की। जब अंतर्राष्ट्रीय पटल से सीधे सवाल पूछे गए तब भी राष्ट्रपति इब्राहिम रईसी आंदोलन की बात को नहीं स्वीकारा। सूचना क्रांति के इस युग में देश को समस्त विश्व से काट कर रखदिया गया है महज इसलिए कि महिलाओं को सर ढक कर ही घर से बाहर निकलना है। मगर बात तो अब बहुत आगे बढ़ चुकी है। कई देश ईरान पर प्रतिबन्ध लगाने वाले हैं। दुनिया भर की महिला विदेश मंत्रियों की बैठक होने वाली है जिसमे यह तय किया जाएगा की ईरान में हो रहे इस विद्रोह और उसके दमन पर क्या कदम उठाये जाने चाहिए। ईरान में मौजूदा अशांति ने अंतरराष्ट्रीय चिंताओं को बढ़ा दिया हैजिसके फलस्वरूप ईरान की परमाणु क्षमताओं पर बातचीत रुक गई है और तेहरान यूक्रेन में रूस के आक्रमण का समर्थन करने के लिए आगे बढ़ गया है। दूसरी तरफ ईरान इसको अपने आंतरिक मामलों में दखलअंदाज़ी बता रहा है। दरअसल सरकार को भय है कि अगर दवाब में आकर हिजाब कानून अगर वापस ले लिया गया तो जनता में गलत सन्देश जाएगा और इस्लामिक कट्टरपंथी धड़ा इस अवसर को भुनाने से बाज़ नहीं आएगा। ईरान की सरकार जनता में यह सन्देश किसी हाल में नहीं जाने देना चाहेगी कि उनकी सोच लिबरल हो चुकी है और कानून वापसी को इस्लाम के पश्चिमीकरण के रूप में देखे जाने के खतरे से बचना चाहेगी। हस्बेमामूल यह है कि यहाँ बात सरकार के खुद के अस्तित्व की आ गई है।
देखना है आगे यह आंदोलन क्या शक्ल लेता है, क्या महसा अमीनी और उनके जैसे २४४ लोगों की जान की कुर्बानी यू ही व्यर्थ जाएगी या ये जिहाद अपने अंजाम तक पहुंचेगा !

कर्णाटक में हिजाब प्रकरण

बात जब हिजाब की हो रही है तो हाल ही में सुर्ख़ियों में आये अपने भारत के कर्नाटक राज्य के मिनी हिजाब आंदोलन की चर्चा के बगैर यह मुद्दा मुक्कमल कैसे हो सकता है, दीगर बात यह है की यहाँ मुद्दा ईरान के प्रकरण से बिलकुल उलट है और अभी भी सर्वोच्च न्यायलय में विचाराधीन है। वाकया जनवरी का है जब कर्नाटका के एक जूनियर कॉलेज में कुछ छात्राओं को हिजाब पहनने के कारण कक्षा में प्रवेश निषेध कर दिया गया। इसके ऊपर बहुत विवाद हुआ और पक्ष विपक्ष दोनों तरफ से बयान आये। अगर इस प्रकरण को ईरान के प्रकरण से जोड़ कर देखें तो कमोबेश यह एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। वहां भी व्यक्तिगत चयन का दमन है और यहाँ भी। क्या विडंबना है कि ईरानी महिलाओं पर हो रहे अत्याचार पर बड़ी बड़ी टिपण्णी दे रहे विशेषज्ञ यह नहीं समझ रहे की

कर्नाटक में भी वही सब हो रहा है , फर्क सिर्फ इतना है की वहां धर्म के नाम पर महिलाओं पर जबरन परदे की बंदिश डाली जा रही है और भारत में धर्मनरपेक्षता के नाम पर उनकी इच्छाओं का दमन । उडुपी की लड़कियां हिजाब पहनना चाहती हैं और ईरान की नहीं ! क्या इस इक्कीसवीं सदी में स्त्रियों का इतना भी हक़ नहीं बनता की वो अपनी स्वेच्छा से अपने वस्त्रों का चयन कर सकें। कब तक हमारे वस्त्र हमारी मजहबी वफादारी का सबूत माने जाते रहेंगे! फिलहाल ईरान और उडुपी दोनों ही मामलों के परिणाम भविष्य के गर्भ में हैं। क्या ईरान की महिलाऐं और हमारे भारत की छात्राएं अपने वस्त्रों के चयन में आत्मनिर्भरता हासिल कर पाएंगी और अगर हासिल कर भी लेंगी तो क्या कायम रख सकेंगी, क्या कोई और मोरल पुलिस फिर से किसी और बात पर महिलाओं को अनुशासित करने की मुहीम नहीं छेड़ेगा? इन सभी ज्वलंत प्रश्नों के उत्तर तो आने वाला समय ही देगा , बराबरी के हक़ की लड़ाई अभी बहुत लम्बी है,अभी तो जीवन का हक़ चाहिए, बिना डरे सरे आम कहीं आने जाने का हक़ चाहिए,पढ़ाई का हक़ चाहिए, रोज़गार की स्वेच्छा का हक़ चाहिए, न जाने ऐसे कितने जिहाद, कितने फैसले भविष्य में आने वाले हैं, फिलहाल ईरान और भारत की महिलाऐं प्रतीक्षारत हैं।

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Toshi Jyotsna
Toshi Jyotsna
(Toshi Jyotsna is an IT professional who keeps a keen interest in writing on contemporary issues both in Hindi and English. She is a columnist, and an award-winning story writer.)

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